वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2049
From जैनकोष
तस्य लोकत्रयैश्वर्यं ज्ञानराज्यं स्वभावजम् ।
ज्ञानत्रयजुषां मन्ये योगिनामप्यगोचरम् ।।2049।
प्रभु का परम ऐश्वर्य―प्रभु का तीन लोक का ईश्वरत्व कितना महान है वह स्वरूपदृष्टि से विदित होता है । सभी जीवों को सुख दुःख दे, उनसे पाप पुण्य कराये, उन्हें उसका फल दे ऐसी व्यग्रता तो होती नहीं है प्रभु में । तब फिर महिमा क्या जानी जाय? अज्ञानी लोग तो इसमें महिमा समझते हैं कि प्रभु हम पर नाराज हो जायें तो हमारा बिगाड़ कर दें, ऐसी बात चित्त में हो तो वे प्रभु की महत्ता जानते हैं, किंतु ऐसा तो है नहीं । प्रभु की महत्ता स्वरूपदृष्टि से जानी जाती है । रागद्वेष की अवस्था का अभाव होने से आत्मा में वह ऋद्धि समृद्धि उत्पन्न होती है जिसका चमत्कार विलक्षण है । समस्त लोक जिनके ज्ञान में प्रतिबिंबित हो, इससे भी बढ़कर कोई चमत्कार कल्पना में आ सकता है क्या? इसी कारण वे विशुद्ध आनंद में निरंतर एक रूप से तन्मय रहे, इससे और अतिशय आत्मा का क्या कहा जा सकता है? ऐसा तीन लोक का ईश्वरत्व और ज्ञानराज्य यों स्वभाव से उत्पन्न हुआ है । यहाँ भी लौकिक प्रसंगों में जो प्रधान लोग हैं वे इसमें अपनी प्रभुता समझते हैं कि हमारा ज्ञान विशिष्ट है । हम जो जानते हैं सो होता हैं । राज्य में, समाज में, व्यवस्था में किसी में भी हम अधिक से अधिक जानें और जो होवेगा उसको हम अभी से जान ले, इसमें वे ईश्वरत्व समझते हैं और परिचित लोगों पर राज्य समझते हैं । तो वीतराग सर्वज्ञदेव के ज्ञान में जब समस्त लोक प्रतिभासित हुआ है तो इसे कितना बड़ा चमत्कार कहें, ऐश्वर्य कहे? और फिर भी वह ज्ञानस्वभाव से उत्पन्न है । यहाँ तो बनाकर, साधन जुटाकर, दिमाग लड़ाकर कुछ निमित्तों से अनेक तरह से हम ज्ञान बनाया करते हैं, किंतु प्रभु का ज्ञान निरावरण होने से अब ऐसा फैल गया निसीम निर्वाध कि सत् हो, कुछ भी कहीं भी, तो वह उनके ज्ञान में प्रतिबिंबित है ।
प्रभु का वचनातीत ऐश्वर्य―हम जब कुछ थोड़ा बहुत पदार्थों को जानते हैं सो भी यह ज्ञान की ही तो महिमा है । जिसके आवरण बिल्कुल नहीं रहे वे सब सत् को न जानें तो यह तो एक अतथ्य की बात होगी । इस ज्ञान में जानने की कला है, और इतने उपद्रव, विडंबनायें, विरोध होने पर भी कुछ हमारा ज्ञान जान लिया करता है तो जहाँ कर्म का उपद्रव नहीं , रागादिक की विडंबनायें नहीं, आवरण नहीं, वह ज्ञान समस्त सत् को न जाने तो कारण बतलावो अथवा मर्यादा सहित जाने, आगे की न जान पाये तो इसका कारण बतलावो । प्रभु का ज्ञानराज्य इतना सातिशय है, स्वभावज है कि अपने आप ही समस्त सत् पदार्थ उनके ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं । स्वरूपदृष्टि से हम प्रभु की महिमा समझ सकते हैं, अन्यथा वह हमें सुख नहीं देते, दुःख नहीं देते, फिर महिमा क्या समझेंगे? प्रभु का महत्व तो उनके स्वरूपदर्शन से ही विदित होगा । उन प्रभु का इतना महान ऐश्वर्य है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान के धारी योगियों को भी उनके ऐश्वर्य की छाया नहीं मिल पाती । यहाँ ज्ञानी पुरुष प्रभु का ध्यान कर रहे हैं तो उन प्रभु की महिमा को वे ज्ञानी ही समझते हैं।