वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2051
From जैनकोष
तद्गुणग्रामसंलीनमानसस्तद्ताशय: ।
तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं प्रपश्रते ।।2051 ।।
परमात्मत्वभावित योगी के तन्मयत्य का लाभ―योगी प्रथम तो भगवान के गुणसमूह में अपने मन को लीन करते हैं और फिर प्रभुस्वरूप की भावना से स्वयं भावित होते हैं । इस प्रकार ये योगी परमात्मस्वरूप को प्राप्त करते हैं । इस श्लोक में बहुत अच्छी योगसाधना की विधि कही गई है । परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए इनके ये क्रमश: तीन यत्न हैं―प्रथम तो परमात्मा के स्वरूप में मन को लगाना । इसका भाव सीधा है । परमात्मा में जो गुण पाये जाते हैं उनको देखकर निरखकर उनके अनुराग से उसमें मन लगाये, दूसरा अभ्यास होता है कि उस में आशय अभिप्राय पड़ा रहता कि जो प्रभु का स्वरूप है वह मेरा स्वरूप है । जिस रत्नत्रय के मार्ग से ये विशुद्ध हुए हैं उस मार्ग से यहाँ भी विशुद्धता हो सकती है । जो स्वरूप उनका है वह स्वरूप मेरा है । मुझे क्या करना है, प्रभुभक्ति से हमारा क्या कर्तव्य है, यह सब आशय उस प्रभुभक्त में रत हो जाता है । फिर तीसरे प्रयास में यह तद्भाव से प्रभावित होता है―सोऽहं । जो वह है सो मैं हूँ । जो स्वरूप प्रभु का है उस स्वरूप के रूप में अपनी भावना बनाता है और तद्रूप से अपने आपकी संभावना करता है और ऐसे भावों में भावित हो जाता है कि तन्मयता आ जाय । तो ऐसी तन्मयता को वह तुरंत प्राप्त कर लेता है, और फिर कुछ समय बाद उस परमात्मत्व पद को प्राप्त कर लेता है । जैसे जलते हुए दीपक की उपासना कोई दूसरा दीपक करे अन्य दीपक भी अधिक जल उठता है, और प्रकाशमान हो जाता है, इसी तरह कोई भक्त अपना स्वरूप प्रभु के स्वरूप में जोड़े तो वह भक्त भी उसके प्रसाद से तद्रूप हो सकता है, क्योंकि वह प्रभु के स्वरूप की निरख से अपने स्वरूप को जकड़ करके अपने में गुण उत्पन्न कर लेता है ।
ध्यान के प्रारंभिक यत्न―ध्यान के लिए जो प्रथम यत्न है वह इस प्रकार भी हो सकता है―स्थिर आसन से सीधे बैठकर जिसमें श्वास की नली मुड़े नहीं, सीधी रहे, वहाँ और कुछ न बन सके तो यह देखता रहे कि अब मेरी कौनसी श्वास निकल रही है? जब श्वास लेते हैं और नासिका में अंगुली लगाकर देखते हैं तो पता पड़ जाता है कि कौनसी श्वास चल रही है । यद्यपि श्वास लेने से कोई देवदर्शन की बात बनती हो, सो बात नहीं है, पर चित्त की एकाग्र करने की यह भी एक विधि है । फिर इसके बाद अब हम श्वास के छोड़ने और लेने में जो कुछ छोटीसी एक आवाज चलती है, उस आवाज को ध्यान में लें । जब श्वास लेते हैं तब सो की आवाज निकलती है और जब श्वास को बाहर छोड़ते हैं तो हं की आवाज निकलती है । इस चीज को करके भी आप देख सकते हैं । तो अब तो श्वास के लेने और छोड़ने के समय में हम सोहं सोहं सोहं धीरे-धीरे श्वास की रफ्तार के साथ अब उस शब्द का ग्रहण करें, और बढ़े तो कुछ शब्द पर दृष्टि प्रधान न रखकर उस शब्द का जो वाच्य अर्थ है सो अर्थात् प्रभु और हं अर्थात् मैं । जो प्रभु हैं सो मैं हूं―यों निरखे । देखो यह मनुष्य रात दिन सोहं सोहं कि आवाज निकालता रहता है । अब उस आवाज में शब्दों का जोड़ करके हम उस वाच्य पर दृष्टि दें―जो प्रभु हैं सो मैं हूँ, अब इसके बाद जब सो बोल रहे हैं तब उस शुद्ध स्वरूप पर दृष्टि दें जो प्रभु का स्वरूप है । और जब हं शब्द कहें तो अपने आपमें अंतःप्रकाशमान उस विशुद्ध ज्ञायकस्वभाव को लक्ष्य में ले । सोहं । और जब स्थिरता हो जाप तो हम अहं का अनुभव करें । फिर इस प्रकार भी मंत्र का जाप करें । ॐ नम: सिद्धेभ्य:, ॐ शुद्धं चिदस्मि, सिद्धों को नमस्कार हो, मैं शुद्ध चित्त हूँ । अहं की बात नहीं कही अब, अहं तो अस्मि से संबंधित है । दो ही तरह की बात आई यहाँ―प्रभुध्यान व आत्मस्मरण । तो यह बात इस योगी के उन 3 अभ्यास भूमिकाओं में आ गयी । प्रथम तो प्रभु के गुणसमूह में मन को लीन करे, फिर इनके गुणों में अपना आशय लगा दे, फिर अंत में जो अपना भाव है, स्वरूप है उस रूप में अपने को भावित कर दे । सोहं, यह मैं हूँ ।
तद्भावभावना का प्रभाव―देखो एक बच्चे को भी जो ऊधम मचाता है उसे इतना कह दो कि अरे तू तो राजा है तो वह ऊधम मचाना छोड़ देता है । तो उसने क्या किया? अपने चित्त को उसने भावित ही तो किया है । तू राजा है, राजा लोग तो ऐसा ऊधम नहीं किया करते । तो उस बच्चे ने अपने में राजा भाव को भावित किया, और उसने ऊधम मचाना छोड़ दिया । जो डाँट डपट से नही मान सकता उसे अच्छे भावों से भावित कर दीजिये । तो उसका ऊधम मचाना छूट जायगा । फिर हम तो शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र हैं ही, सो चाहे इस समय बाह्यस्थिति में कैसे ही हों, फिर भी अपनी शक्ति अनुसार यदि ऐसा अनुभव करें कि परमात्मा का जो स्वरूप है सो मैं हूँ । परमात्मस्वरूप की भावना से अपने को भावित बनाये तो हम अपने आपमें कितना ही उत्कर्ष पा सकते हैं ।