वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2062
From जैनकोष
असावनंतप्रथितप्रभाव: स्वभावतो यद्यपि यंत्रनाथ: ।
नियुज्यमान: स पुन: समाधौ करोति विश्वं चरणाग्रलीनम् ।।2062।।
अनंतप्रभावी आत्मा का समाधि में यत्न―यह आत्मा स्वभाव से ही अनंत प्रभाव वाला है―एक तो यह अमूर्त और दूसरे ज्ञानस्वरूप । इसमें इतना प्रभाव है जो कि आत्मा में स्वभाव से ही पड़ा हुआ है । फिर कोई समाधि में अपने उपयोग से चलित न होता हो तो वह प्रभाव कितने गुणित हो जाता है? इतना अधिक हो जाता है कि वह समस्त जगत को अपने चरणों के अग्रभाग में लीन कर लेता है । अब देखिये ना, वीतराग सर्वज्ञदेव को, क्या है उनके पास? लोकदृष्टि से तो लोग कहेंगे कि क्या' है उनके पास, जो था सो भी खो दिया । घर छोड़ दिया, वैभव छोड़ दिया, और रागादिक विभाव भी आते थे उनको भी छोड़ दिया । सो पहिले तो भरे पूरे थे, अब तो वे एकदम सूने रह गये । लेकिन उस सूनेपन में कितनी महिमा बसी है? रागादिक नहीं रहे, सर्व विविक्त हो गये, उसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि लो यह जगत स्वयं खिंचा हुआ फिरता है । जीवलोक समवशरण में पहुंचता है, दर्शनों को उत्सुक रहता है और उपदेशों का अभिलाषी रहेगा समवशरण में । तो वह सब प्रताप किसका है? वह उस समाधि में लगा सो उसका फल पाया । यह रूपातीत ध्यान का वर्णन करने के पहिले कुछ और श्लोकों में उसकी प्रस्तावना में कह रहे हैं कि ध्यान में इतना प्रभाव होता है।