वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2063
From जैनकोष
स्वप्नेऽपि कौतुकेनापि नासद्ध्यानानि योगिभि: ।
सेव्यानि यांति बीजत्वं यत: सन्मार्गहानये ।।2063।।
कुध्यानसेवा से सन्मार्गहानि―कहते हैं कि योगी पुरुषों को स्वप्न में भी कौतुकवश भी खोटे ध्यानों का सेवन न करना चाहिए । इसका कारण यह है कि वह खोटा ध्यान इस समीचीन मार्ग की हानि करने के लिए बीजपने को प्राप्त होता है । इन खोटे ध्यानों से खुद की भी और दूसरों की भी बरबादी होती है । इस कारण से कौतुकवश भी स्वप्न में भी, अथवा कभी कोई कषाय जग जाय तो उस कषायवश भी असद्ध्यान नहीं करना चाहिए । एक अपने आप, संतुलन रखना यह बहुत बड़ा गंभीर पुरुष ही कर सकता है । अन्यथा इसी प्रकरण में थोड़ी बहुत तृषा जगने पर इस बात पर उतारू हो जाते हैं कि हमारा चाहें कुछ भी हो जाय, चाहें बरबाद हो जायें, पर इसको तो हम मजा चखा ही देंगे । ऐसा भाव बन जाता है । कोई जरा छोटासा कषाय का लगार तो लगे फिर तो हानि हो जाती है । तो खोटे ध्यान का सेवन योगी पुरुषों को रंच भी न करना चाहिए । इस प्रकरण से अपने आपको यह शिक्षा ले लेनी चाहिए कि यह तो ध्यान की बात है । हम आप सबको किसी व्यक्ति के प्रति कुछ द्वेष की बात जग जाय तो इतना उतारू न हो जाना चाहिये कि मैं इसको इतना अधिक कष्ट पहुंचाऊँ । जैसे व्यवहार में कहते है―मजा चखाऊँ क्योंकि ऐसी कषाय उमग जाने पर उसकी बरबादी भी हो जाय तो क्या मिला? और न हो तो यह अपने अधीन नहीं, किंतु खुद कषाय का आवेश बना लेने के कारण सन्मार्ग से चिग गया, अब उसे उल्टी-उल्टी बातें सूझेंगी ।
रागद्वेष से बचने के लिये मन के संतुलन की अनिवार्यता―भैया ! मन का विचार का संतुलन बनाये रखना बहुत बड़े गंभीर पुरुष की बात है । किसी पुरुष में दश अवगुण हैं और दो गुण हैं तो उस पुरुष के बारे में, और कोई हो पुरुष ऐसा कि जो किसी कोटि में अपनी समकक्षता जैसी बात रखता हो तो उसके बारे में भी गुणों का वर्णन कर सकना बहुत कठिन हो जाता है कषायवान पुरुष को । और फिर जिसमें दोष हों ही नहीं कुछ और गुण हों तो ऐसे तक का भी वह वर्णन नहीं कर सकता । यह बड़ी गंभीरता की बात है कि किसी भी पुरुष में जो गुण हैं, बच्चे में भी जो गुण हैं । उनको बता सके और दोष होने पर भी दोष की बात न रखे, यह तो ऊँची बात है और उसके दोष बताकर भी उसमें कोई गुण हों तो गुण भी बखान दे यह बड़ी गंभीरता की बात है । जो बड़े विद्वान होते हैं, ऊँचे समालोचक होते हैं, दार्शनिक फिलास्फर होते हैं उनमें ऐसी गंभीरता होती है कि किसी भी बात में दोष हो तो दोष को भी कह देते, पर दोष हैं, दोषों को कह रहे हैं इस धुनि के कारण गुणों को तिलांजलि दे दे ऐसी बात नहीं होती है । जो गुण हैं उन्हें भी कह देते हैं । यह बात इसलिए कही कि हम किसी व्यक्ति के प्रति कुछ द्वेष उमड़ने पर, उसकी कुछ बात न जंचने पर उसके प्रति कषाय की बात प्रविष्ट कर दे, कोई कषाय बढ़ जाय, तथा उस दूसरे की ओर से भी कुछ चेष्टायें हों तो कषायें बढ़ाकर यह अपना ही नुक्सान कर लेता है । आचार्य संतों ने किसी भी चर्चा में प्रश्नोत्तर स्वयं देते-देते जब जरा कुछ बात तेजसी हो गयी, कर रहे हैं खुद रचना, बोलने वाला कोई नहीं है, परंतु उसमें कोई वादविवाद के ढंग जैसी बात आती है तो बीच में यह लिख करके ही उस प्रकरण को समाप्त कर देते हैं कि इससे अधिक मत बढ़ो, नहीं तो रागद्वेष होगा और उस रागद्वेष से अपनी ही हानि होगी । तो अपने आपकी रक्षा करना यही है मुख्य कर्तव्य ।
योगियों की समता की प्रकृति―योगियों को तो बताया है कि वे खोटे ध्यानों को किसी भी कीमत पर न करें और अपने लिए फिर यह शिक्षा लें कि दूसरे व्यक्ति पर हम चतुराई की बात, उसका बुरा करने की बात हम मन में न लायें । चाहे आने पर उसके द्वारा कितनी ही हानि छायी हो, कितने ही बार उसने हम पर आघात किया हो, फिर भी चाहे उसका मुकाबला कर ले, बात कह ले, पर हृदय में उसके अकल्याण की भावना न जग सके । यह बहुत बड़े ज्ञान की बात है । भला बतलावो―सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष कभी विरोधी हिंसा के प्रसंग में लग जायें, कोई आतताई लोग अथवा अन्याय करने वाले आक्रमण कर दें, धन भी हड़प रहे हैं, प्राणों का भी खतरा है तो उस समय मुकाबले में आकर भी, कितना ही उसका निराकरण करने पर भी उस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष के चित्त में किसी भी क्षण यह वात नहीं आती है कि मैं इनका अकल्याण कर दूं । सोचिये यह कितने बड़े भारी ज्ञानबल की बात है? रामचंद्र जी ने कितना राम रावण युद्ध के समय पराक्रम दिखाया । रावण की सेना परास्त हो गई, ऐसे समय में भी रामचंद्र जी ने यही कहा कि हे रावण ! तुझसे मुझे कुछ न चाहिए, तेरा राज्य न चाहिए, तेरा प्राण न चाहिए, तेरी कुछ भी चीज न चाहिए, बस न्याय की बात है कि तू मेरी सीता को वापिस कर दे, फिर तू आनंद से राज्य कर । भला इतनी विजय कर चुकने पर जहाँ एक थोड़ा मामला रह जाय कि उसे पूर्ण बरबाद किया जा सकता है ऐसे समय पर भी इतनी गंभीरता रख सकना यह बड़े ज्ञानबल की बात है । यहाँ योगी पुरुषों को कहा जा रहा है कि उन्हें स्वप्न में भी खेल कौतुक में भी असत् खोटे ध्यान न करना चाहिए ।