वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2064
From जैनकोष
सन्मार्गात्प्रच्युतं चेत: पुनर्वर्षशतैरपि ।
शक्यते न हि केनापि व्यवस्थापयितुं पथि ।।2064।।
सन्मार्ग से च्युत होने का परिणाम―खोटे ध्यान के कारण कोई सन्मार्ग से विचलित हो जाय तो उस विचलित चित् को फिर सैकड़ों वर्षों में भी सन्मार्ग में ले जाने की सामर्थ्य नहीं हो पाती, इस कारण खोटा ध्यान कभी भी किसी को न करना चाहिए । जैसे द्वेष प्रसंग में किसी को भी द्वेष शुरू न करना चाहिये । चित्त में थोड़ी बात कदाचित् आ भी जाय तो भी वचनों से, शरीर से, चेष्टावों से उस द्वेष को व्यक्त न कर देना चाहिए, क्योंकि व्यक्त किए जाने से पहिले हमारा मन हमारे वश हो सकता है, हमारी गल्ती. हमारे विचार हम गुप्त ही अपने आपको समझाकर उस दुर्विचार से अपने को मुक्त कर सकते हैं । परंतु व्यक्त हो जाने पर, प्रकट हो जाने पर और अब उसका प्रयोग कर देने पर, जवाब दे देने पर फिर यह कठिन हो जाता है कि हम अपनी उस कषाय को लौटा लें और दूर कर दे और निष्कषाय बन सके । इस कारण द्वेष की बात शुरू भी न हो पाये, इस तरह का अपना संतुलन बनाना चाहिए, क्योंकि बनने की बात लगार होने पर बढ़ बढ़कर इतना तीव्र आवेग हो सकता है कि वह अपने सारे सन्मार्गों को न्यायनीति को त्याग दे और जो अपने आपको खुद बरबादी में ले जाय, ऐसे उपाय को भी यह कर डालता है । यदि एक बार भी विचलित हो जाय तो सैकड़ों वर्षों में भी अपने आपको सन्मार्ग में ले जाने को समर्थ नहीं हो सकता, अतएव इन दुर्ध्यानों से दूर रहें, यही विवेकी का कर्तव्य है ।