वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2068
From जैनकोष
तद्धयेयं तदनुष्ठेयं तद्विचिंत्यं मनीषिभि: ।
यज्जीवकर्मसंबंधविश्लेषायैव जायते ।।2068।।
कर्ममुक्ति के अर्थ किये गये ध्यान की ही श्रेष्ठता―हें मुमुक्षु जनो ! ध्यान उसका ही करो, अनुष्ठान उसका ही करो, चिंतन मनन भी उसका करो कि जिसके ध्यान आदिक से यह जीव कर्मसमूह से रहित हो जाय । जैसे कोई पुरुष दो दिन का आराम पा ले और उसे यह पता हो कि इस आराम के बाद हमें इतना दुःख दिया जायगा तो उस आराम के लिए चित्त नहीं चाहता । कोई कहे कि हम आपको एक दिन के लिए राजा बनाये देते हैं और उसके बाद जंगल में छोड़ देंगे तो वह पुरुष उस ऐश्वर्य को न चाहेगा । लोग तो ऐसी यथायोग्य भली स्थिति चाहते हैं जो चिरकाल तक रहे । तो यहाँ के ये समागम, यहाँ की ये बातें जब बहुत समय तक रह नहीं सकती तो इनके लिए क्यों ध्यान करना और क्यों इनका संग करना? ध्यान करना उसे प्रयोजन से कि संसार के संकटों से सदा के लिए छूट जायें ।
(रूपातीतध्यानवर्णन प्रकरण 40)
सत्य श्रद्धान से ही कल्याण―श्रद्धान् सही होगा तो पापरस घटेगा व पुण्यरस बढ़ेगा । श्रद्धान सही होने से सब प्रकार से कल्याण-कल्याण की ही बात है और अगर श्रद्धा बिगड़ी तो न यहाँ के रहे, न वहाँ के रहे, यह स्थिति बनेगी । इस मनुष्यजीवन का बड़ा उत्तर- दायित्व समझना चाहिए और अधिक नहीं तो श्रद्धा तो सही बना लेना चाहिए । इतना साहस तो रखना ही चाहिए कि कोई रागी द्वेषी देवी नाम से प्रसिद्ध हमारे आदर्शभूत नहीं हैं उनको हम आदर्श मानकर, उनकी आराधना करके, उनकी सेवा से हम झंझटों से मुक्त नहीं हो सकते । है कौन झंझटों से मुक्त कराने वाला? प्रभुपूजा करके, प्रभुध्यान करके, तपश्चरण करके भी जो पुरुष कुछ वास्तविक आराम पाता है तो वह अपने कर्म से पाता है, किसी दूसरे की दया से नहीं पाता है । तो कौन हमें संपन्न बनायेगा? अपने आप पर दया का भाव करिये और सच्ची श्रद्धा में अपना जीवन बिताइये । यही तत्व ध्यान करने योग्य है जो जीव और कर्म के संबंध को अलग हटाने का कारण बनता है ।