वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2069
From जैनकोष
स्वयमेव हि सिद्धन्ति सिद्धय: शांतचेतसाम् ।
अनेकफलसंपूर्णा मुक्तिमार्गावलंबिनां ।।2069।।
शांतचित्त पुरुषों को ही सिद्धियों का लाभ―कहते हैं कि जिनका शांत चित्त है, जो मुक्तिमार्ग का आलंबन लेने वाले हैं उन पुरुषों की सिद्धि अनेक फलों से भरपूर है, स्वयं ही निष्पन्न होती है । शांति से तो यहाँ ही त्वरित लाभ होता है । एक राजा अपने बगीचे में शाम को घूमने गया, तो बाग में दो तीन कमरे जो खास थे, सो एक कमरे में एक कोई संन्यासी आराम कर रहा था और एक कमरे में उसका शिष्य । तो पहिले ही गुरु ने संकेत कर दिया था शिष्य से कि देखो भाई यहाँ बनना कुछ नहीं । शिष्य ने कहा―अच्छा महाराज । अब राजा आया सिपाही के साथ । सो सिपाही ने देखा कि इस कमरे में कोई आदमी बैठा है, सो राजा की आज्ञा लेकर वह सिपाही उनको निकालने गया । जब वह सिपाही शिष्य के पास पहुंचा तो पूछने लगा कि तुम कौन हो, क्यों राजा के कमरे में बिना पूछे आये? कुछ गालियां भी सुनाई । सो वह शिष्य बोला―तुम्हें पता नहीं हम तपस्वी हैं, साधु हैं, ध्यान करने बैठे हैं । सिपाही ने झट उस शिष्य को वहाँ से निकाल दिया । जब गुरु के पास वह सिपाही पहुंचा तो गुरु से भी वही बात कही, पर गुरु कुछ भी न बोला, अपने ध्यान में बैठा रहा । तो सिपाही राजा के पास जाकर बोला―महाराज ! एक कमरे के एक व्यक्ति को तो निकाल दिया और दूसरे कमरे में बैठा हुआ व्यक्ति तो हमारे पूछने पर भी कुछ बोलता ही नहीं है, बडी शांति से बैठा है । तो राजा बोला―अरे उन्हें मत छेड़ो, वे कोई साधु होंगे । जब राजा घूमकर बाग से चले गये तब बाद में उस शिष्य ने कहा―महाराज ! तुमने हमें अच्छी जगह ठहराया, वहाँ से तो सिपाही ने हमें निकाल दिया । तो गुरु बोला कि तुम कुछ बने होगे? शिष्य बोला―महाराज ! बने तो कुछ नहीं, सिपाही ने पूछा कि तुम कौन हो, क्यों यहाँ राजा के कमरे में ठहरे हो? तो हमने यही कहा था कि हम साधु हैं, तपस्वी हैं, ध्यान करने बैठे हैं । तो गुरु बोला―बस यही तो बनना है । तो जो शांत चित्त हैं; जो कुछ बनते नहीं हैं, जो क्षमाभाव धारण कर के परमशांति का आश्रय लेते हैं उन्हें सर्वसिद्धियां स्वत: ही सिद्ध हो जाती हैं ।