वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2071
From जैनकोष
भवप्रभवसंबनबनिरपेक्षा मुमुक्षव: ।
न हि स्वप्नेऽपि विक्षिप्तं मन: कुर्वंति योगिनः ।।2071।।
निरपेक्ष ज्ञानी संतों के स्वप्न में भी विक्षेप का अभाव―जिनके सम्यग्ज्ञान जगा है वे संसार के संकटों से मुक्ति पाने की ही एक मात्र अभिलाषा करते हैं ऐसे प्राणी संसार में उत्पन्न हुए संबंध में भी निरपेक्ष रहा करते हैं । अपने लिए इन सांसारिक समागमों से कुछ भी वांछा नहीं रखते, स्वप्न में भी अपना मन विक्षिप्त नहीं करते । जैसा निरंतर भाव रहता है स्वप्न में भी उस ही के अनुरूप चित्त रहता है । और जो जगते में भी विक्षिप्त हैं, सोते में भी विक्षिप्त हैं उनको अनेक बाधायें आयें तो इसमें कौन से आश्चर्य की बात है? अपना परिणाम सबकी भलाई करने का होना चाहिए । किसी भी जीव को हृदय से विरोधी न माने, बल्कि दूसरा जो अपने को विरोधी समझे उसकी भी हम अज्ञानता पर दयाभाव रखें । कोई भी पुरुष मेरे विरोध के लिए विरोध नहीं करता किंतु अपनी कषाय शांत करने की चेष्टा कर रहा है । तो ऐसा ज्ञान जगे भीतर में कि समस्त जीवों के प्रति समता का भाव बने, किसी को अपना विरोधी न समझ सके । जो पुरुष ऐसे निर्मल आशा वाले होते हैं वे इस भव में भी सुखसंपन्न होते हैं और उनका परलोक भी सुधरता है । इस प्रकार इस प्रकरण में यह आगाह किया गया है कि सुख चाहने वाले पुरुषों को खोटा चित्त मलिन ध्यान न बनाना चाहिए । ऐसा आगाह करने के बाद अब आचार्यदेव रूपातीत ध्यान का वर्णन करेंगे ।