वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2070
From जैनकोष
संभवंति न चामिष्टसिद्धय: क्षुद्रयोगिनाम् ।
भवत्येव पुनस्तेषां स्वार्थभ्रंशोऽनिवारित: ।।2070।।
क्षुद्रयोगियों को सिद्धि के लाभ की असंभवता―जो खोटा ध्यान करने वाले क्षुद्र योगी हैं, अज्ञान में मुग्ध हैं उनको इष्ट सिद्धियां कदापि सिद्ध नहीं होतीं, किंतु उनके उल्टी स्वार्थ की अनिवार्य हानि ही हुआ करती है । चाहे कुछ और हो कुछ, यह खोटे आशय वालों की गति होती है । यहाँ भी व्यवहार में देखो―जो पुरुष अधिक मायाचार रखते हैं और अधिक छल कपट का व्यवहार करते हैं प्राय: कर के देखा होगा कि वे पद-पद पर ठगाये जाते हैं । छल कपट का पता पड़ जाय दूसरों को तो कोई भी दूसरा उसे अपने निकट भी बैठाने में संकोच करता है । खोटा आशय रखना अपने लिए अहितकर है । क्रोध आता है तो तब आता है जब कोई यह समझ लेता है कि देखो इतने-इतने लोगों में मेरी पोजीशन अटकी तभी क्रोध आया । अकेले में कोई कितनी ही बात कह ले तो वहाँ क्रोध में उतनी तीव्रता नहीं होती है । जिसके चित्त में ज्ञान में यह बात समाई हुई है कि जो देख रहे हैं सो मुझे जानते नहीं और जो जानते हैं सो देखते नहीं, मेरे को तो कोई पहिचानता ही नहीं है, यदि इन व्यवहार विमूढ़ जीवों ने कुछ सम्मान अथवा अपमान भरे शब्द कह दिये तो उससे क्या उठता है? वे सब स्वप्नवत् हैं । ऐसी जो अपने अंतरंग में परमार्थ स्वरूप से लगन लगाये हैं ऐसे पुरुष को क्रोध क्या जगे, अभिमान क्या उत्पन्न हो? संसार के समस्त समागमों को भिन्न असार मानने वाला पुरुष किस बात के लिए मायाचार करे, किस चीज की तृष्णा करे, क्या करना है इन पंचेंद्रिय के साधनों का? तो जो पुरुष एक ज्ञानतत्त्व का आशय रखते हैं उन पुरुषों को सिद्धि होती है, और जो क्षुद्र योगी हैं, खोटा ध्यान रखते हैं, छल कपट में बर्तते हैं उनको उल्टी हानि ही होती है । इससे अपने भावों को सही बनाये रखना चाहिए जिससे कषायों का हम में प्रभाव न जमे, विषय भोग के साधनों में हमारा चित्त न लुभायें । इस प्रकार से सजग रहना यह हम आप लोगों के उद्धार का बीज है ।