वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2073
From जैनकोष
चिदानंदमयं शुद्धममूर्त्तं परमाक्षरम् ।
स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ।।2073।।
रूपातीत तत्व की चिदानंदमयता―चैतन्यात्मक आनंदस्वरूप शुद्ध अमूर्त परम अक्षर ऐसे आत्मा को आत्मा के ही द्वारा स्मरण करे तो वह रूपातीत ध्यान है । इन सब विशेषणों में आप आत्मस्वभाव पर दृष्टि लगायें और इसको वहाँ व्यक्त करें । वह तत्व चैतन्यात्मक है । कोई भी पदार्थ हो उसकी कुछ न कुछ बाँडी होती है । आत्मा की अपने में अपनी बॉडी क्या है? वह तो विध्यात्मक तत्व है जिससे जाना जाय कि यह आत्मा है वह है चैतन्यस्वरूप । वह आनंदमय है । जहाँ आकुलता रंच भी न हो उसी को तो आनंद कहते हैं । दूसरे शब्दों में हम यह भी यह सकते कि जो सर्व ओर से समृद्धिशाली हो उसी का नाम है आनंद । अर्थात् जहाँ गुणों का चरम विकास है, पूर्ण समृद्धि है उसे आनंद कहते हैं । और इस समृद्धि में आकुलता का नाम नहीं है । तो आकुलता न होने का नाम आनंद है । भक्ति में यह भी कहा है कि हे प्रभो ! मुझे अनंत सुख न चाहिए । क्या करना है अनंत का, पर इतना चाहता हूँ कि आकुलता का संताप रंच न रहे और होता क्या है उस अनंत में? तो यह स्वरूप आकुलतारहित है । आकुलता तो जीवों ने मोह रागद्वेष कर करके बनायी है ।
चिन्मात्रस्वरूप की द्दष्टि में आकुलता का विश्लेष―भैया ! अपने आप ही परख लो । ज्ञानदृष्टि जगे, समस्त परजीवों से, परतत्त्वों से निराला मेरा यह चैतन्यस्वरूप ही है, मैं इतना ही मात्र हूँ, ऐसी दृष्टि जगे तो वहाँ फिर आकुलता नहीं रह सकती । जैसे अनेक घरो में लोग रहते हैं, उन सब घरों के लोगों से आपके चित्त में क्या आकुलता है, वे अच्छे रहें या बुरे रहें । आकुलता इसलिए नहीं आती कि आपने उनसे तो भेदविज्ञान बना लिया है किं मैं इनसे निराला हूँ, ये सब गैर हैं । तो ऐसे ही इन सांसारिक समस्त अनात्मतत्वों से यदि यह भेदविज्ञान बने कि मैं इन सर्व से निराला, शरीर तक से भी निराला चैतन्यमात्र हूँ, ऐसी प्रतीति बने, ऐसा सत्य का आग्रह बने तो वहाँ आकुलता का फिर क्या काम है? तो वह स्वरूप जो रूपातीत ध्यान में ध्याया जा रहा है वह आनंदमय है, शुद्ध है, स्वभावत: समस्त परपदार्थों से पृथक् है । परभावों की बात अभी नहीं कह रहे, पर प्रत्येक जीव परपदार्थों से निराला है । सभी शुद्ध हुए उस नयदृष्टि से, लेकिन ऐसा होकर भी अपने को शुद्ध समझ नहीं सकते । और परपदार्थों में लगे भिड़े सने हुए ही कल्पना से अपन को मान रहे हैं, तो वह तो उनकी कल्पना से परतंत्रता है, पर किसी पदार्थ में किसी अन्य पदार्थ का प्रवेश नहीं है, इतनी शुद्धता तो अनादि अनंत समस्त पदार्थों में है और फिर यहाँ स्वभाव और विभाव का भेदविज्ञान करके शुद्ध को निरखा जा रहा है । ऐसा मैं चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मा हूँ और अमूर्त हूँ, रूप आदिक विडंबनाओं से दूर हूँ, तभी मैं चैतन्यात्मक हूँ, आनंदस्वरूप हूँ । इस तत्व में जब दृष्टि खचित होती है, फिर उसमें अगर रह जाय उपयोग तो उस समय उस अनुभव में जो बात होती है, आनंद होता है, बस दुनिया में सारभूत बात इतनी ही है, बाकी सारी चीजों में तो कुछ भी सारभूत बात न मिलेगी।
असार संपर्कों से निवृत्त होकर रूपातीत ध्यान में उतरने का अनुरोध―भैया ! इन सब चीजों का समागम कितने दिनों का है, यहाँ किसको क्या दिखाना है, कौन यहाँ मेरा प्रभु है? यहाँ किसको प्रसन्न करना, किसको दिखाना, किन में यश चाहना, किन में पोजीशन बढ़ाना? हैं ना ये सब व्यर्थ की बातें ! अहो मोही जन इन ही व्यर्थ बातों की कल्पनायें गढ़-गढ़कर अपने जीवन को बरबाद किए जा रहे हैं । यहाँ एक अपने आत्मस्वभाव को भूलकर किन असार पदार्थों में अपनी दृष्टि गड़ाई जाय? किन चीजों के लिए अपने जीवन को यहाँ आकुलित बनाया जाय? निरंतर व्यर्थ की कल्पनायें जो बनायी जा रही हैं वे तो अपनी बरबादी के ही कारणभूत हैं । तो यह आत्मा अमूर्त है, परम अक्षर है, अविनाशी है । ऐसे आत्मा को इस आत्मा के ही द्वारा स्मरण करे तो इस स्मरण को कहेंगे रूपातीत ध्यान । धर्मध्यान के इस प्रकरण में ज्ञानी ने प्रभु की आज्ञा को प्रधान करके ध्यान किया । फिर रागादिक भावों के विनाश की उत्सुकता का भाव लगाकर ध्यान किया, फिर कर्मों के नाना विपाकों को निरखकर संसार से उपेक्षा भाव करके ध्यान किया, फिर पिंडस्थ, पदस्थ और रूपस्थ में क्रमश बढ़-बढ़कर इसने अपना चित्त एकाग्र किया, और अब उस तत्व पर उतरा जा रहा है जिसके लिए ये पूर्व के सारे ध्यान बनाये गए थे । उस आत्मतत्त्व का जो आत्मा से ही स्मरण करे उसके ध्यान को रूपातीत ध्यान कहते हैं ।