वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2075
From जैनकोष
विवेच्य तद्गुणग्रामं तत्स्वरूपं निरूप्य च ।
अनन्यशरणो ज्ञानी तस्मिन्नेव लयं ब्रजेत् ।।2075।।
सिद्धप्रभु के स्मरण व उपयोग में अनन्यशरणता की संभवता से ध्थानसिद्धि का समाधान―कहते हैं कि प्रथम तो परमात्मा के गुण समूह को, दस के स्वरूप को पृथक्-पृथक् विचारे, और फिर उन गुणों के समुदायरूप परमात्मा का गुणगुणी के अभिन्न भाव से विचारे और फिर अन्य किसी की शरण से रहित होकर ज्ञानी पुरुष उसी परमात्मा में लीन हो जावे । यह ज्ञानी जब अनन्य शरण हो जाता है तब उस ही में लय को प्राप्त हो जाता है । भले ही उस सिद्ध प्रभु के ध्यान के प्रारंभ में द्वैत बुद्धि है और प्रकट भी द्वैतता है । यह ज्ञानी भी ध्यान किसी अन्य क्षेत्र में विराजे हुए को कर रहा है, लेकिन वहाँ जब गुणसमूह का विचार किया जाता है तो उस विचार में चलते-चलते एक चैतन्यस्वभाव का विचार रह जाता है और व्यक्ति छूट जाती है और उस चैतन्यस्वरूप का, फिर जब ध्यान चलता है तो यह द्वैत नहीं रहता कि ध्यान करने वाला और है और ध्यान में लाया गया पदार्थ और है । वह चैतन्यस्वरूप जब उपयोग में आये तो चैतन्यस्वरूप और उपयोग―ये दोनों वहाँ एकरस हो जाते हैं, भेद नहीं मालुम होता है । तो उस समय यह ज्ञानी लय को प्राप्त हो जाता है । हम चौकी का ज्ञान करें तो ज्ञान और चौकी एक रस कैसे बन सकते हैं? विलक्षण चीज है, विरुद्ध चीज है, ध्येय वस्तु अन्य तो ध्याता है व अन्य है और जब ज्ञान ही ध्यान करने वाला है और ज्ञानस्वरूप ही ध्येय बन जाता है तो वहाँ वह ध्यान ध्याता ध्येय का द्वैत मिट सकता है और वहाँ एकरूपता आ सकती है । इस कारण से रूपातीत के ध्यान के लिए मुमुक्षुजनों को ऋषिजनों ने आदेश दिया है ।