वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2085
From जैनकोष
सोऽहं सकलवित्सार्व: सिद्ध: साध्यो भवच्युत: ।
परमात्मा परमज्योतिर्विश्वदर्शी निरंजन: ।।2085।।
भवरहित सकलवित् स्वरूप का चिंतन―वह मैं सर्वज्ञ और निज वैभव से युक्त हूँ । देखिये एक सिद्ध प्रभु के गुणों में दृष्टि लग रही है और उसही के, समान अपनी शक्ति को जब निरखा है तो उस निरखने में यह यत्न कर लिया कि इस ही प्रकार सर्वज्ञता मेरा स्वरूप है हु व्यक्ति और शक्ति की बात हृदय में रखे रहियेगा । वह मैं सिद्ध हूँ, स्वयं सत् हूँ । अपने गुणों से निष्पन्न हूँ । ऐसा यह मैं सिद्ध हूँ, यही साध्य है । सिद्ध भी यह मैं हूँ और साध्य भी । क्या बना है वह? पूर्ण विकासमय निरपेक्ष केवल, ऐसा मैं बनूंगा । ऐसा अपने आपके संबंध में परमात्मस्वरूप का निरंतर खुद निर्णय कर रहा है । सोऽहं । वह मैं हूँ । यह मैं भवच्युत हूँ, भव से रहित हूँ । सिद्धप्रभु भव से रहित हैं और उन्हीं को निरखकर अपने स्वरूप को समझकर वह योगी मनन कर रहा है कि हें भव से रहित हूँ । यह हें जो सहज शाश्वत ज्ञानस्वरूप हूँ वह भव से च्युत है । बहुत अंतर मनन की बात है कि परिस्थिति तो है यह संसारी की और विकार परिणमन भी है, जन्ममरण भी हो रहा है, नाना दशायें भी बनती हैं । ऐसी भी स्थिति में इस ज्ञानी ने कहाँ चित्त डाला है, उस सहज स्वरूप पर । सहजस्वरूप प्रत्येक वस्तु का नियम से होता ही है अन्यथा वस्तु की सत्ता नहीं रह सकती । तो मैं अपने सत्व में सहज स्वरूप कैसा हूँ, इस पर दृष्टि देकर जो निर्णय में आये उसको तो माने कि यह मैं हूँ और शेष जो कुछ भी इस पर बीत रही है उसे यह न माने कि मैं हूँ । रागद्वेष शोक विचार वितर्क आदि ये मैं नहीं हूँ । कहाँ दृष्टि लगाकर निरख रहा है वैसी ही दृष्टि बनाकर यह प्रकरण सुनना चाहिए । वह मैं भव से रहित हूँ ।
कैवल्यस्वरूप की श्रद्धा के अभाव में केवल परिणति होने की अशक्यता―देखिये, न श्रद्धा हो ऐसी कि मेरा स्वरूप तो भव से रहित है, संसार में अतीत है तो वह वैसा बनने का उद्यम कर नहीं सकता । पानी गर्म है, पर यह विश्वास बना है ना कि पानी का स्वभाव ठंडा है, सो उस गर्म पानी को झट फैलाकर, पंखा चलाकर ठंडा कर लेते हैं, पर अग्नि का गर्म स्वभाव है यह सभी को पता है सो किसी को अग्नि को उस तरह से ठंडा करते हुए न देखा होगा । तो अपने बारे में यदि यह विश्वास न रखें कि मैं सर्वविकारों से रहित केवल ज्ञायकस्वरूप हूँ, लेकिन जाय दृष्टि अंतस्वरूप में, तो हम उस अग्नि के माफिक कभी शांत नहीं बन सकते । तो यह रूपातीत ध्यान में आया हुआ योगी अपने आपका कैसा चिंतन कर रहा है । मैं भव से रहित हूँ, परमात्मा हूँ । परम का अर्थ है उत्कृष्ट, मा वाला, जहाँ उत्कृष्ट लक्ष्मी है उसको परम कहते हैं । परम शब्द विशेषण रूप है । उत्कृष्ट लक्ष्मी वाला ऐसा यह मैं आत्मा हूँ ।
परमज्योतिस्वरूप के चिंतन में सच्ची चतुराई―अहो, संसार की चतुराई में सोच तो यह रहा है जीव कि मैं बड़ी चतुराई कर रहा हूँ, बहुत से काम कर रहा हूँ, बड़ा वैभव जोड़ रहा हूँ, मैं दूसरा को खूब सता रहा हूँ, मैं अपने सब काम स्वार्थ से चला रहा हूँ यों सोचता है कि मैं बड़ी चतुराई का काम कर रहा हूँ, लेकिन यह अमूर्त ज्ञाननिधि बरबाद हो जाती है इस चतुराई के कारण । हूँ तो मैं परम आत्मा उत्कृष्ट ज्ञान लक्ष्मीयुक्त आत्मा, पर ऐसा विश्वास न होने से उस मार्ग में हमारी गति नहीं हो पाती । यह मैं परमात्मा हूँ, परम ज्योति उत्कृष्ट ज्योति । ज्योति का काम है प्रकाश करना । ये दीपक, ये सूर्य चंद्र क्या वैसा प्रकाश कर सकेंगे जो प्रकाश ज्ञान में होता है । स्पष्ट समस्त सत् ज्ञान में आते हैं उस प्रकाश की हम क्या सूर्य चंद्र आदिक से उपमा दे? एक क्या करोड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रभा इस ज्ञान में है । मैं परमज्योतिस्वरूप हूँ । सहज स्वभाव से तो यह मैं केवल जाननशक्ति मात्र हूँ, ऐसी यह ज्योति है और पर्यायत: यह ऐसी ज्योतिरूप बन सकेगा कि जिस ज्योति में फिर वह प्रकाश प्रतिशत एक साथ प्रतिबिंबित होता है । ऐसा यह दें परमज्योति स्वरूप हूँ, समस्त विश्व का देखने वाला हूँ । विश्व का ज्ञान करने वाले निज आत्मा को जो दर्शन में, प्रतिभास में लेता है उसने सारे विश्व का दर्शन किया है । विश्व का दर्शन ज्ञान की झांकी, विश्व रूप में याने विश्व के आकार रूप में नहीं होता, किंतु समस्त विश्व के जाननहार परिणति वाले समस्त आत्मा को प्रतिभास में ले, यही विश्वदर्शन है ।
निरंजन परमात्मतत्त्व―यह ये निरंजन हूँ, इसमें किसी भी पर का संबंध नहीं, न शरीर का संबंध, न कर्मों का संबंध, न रागादिक विकारों का संबंध । किसी भी प्रकार का अंजन इस स्वरूप में नहीं है । यहाँ उस तत्त्व को निरख रहा है ज्ञानी पुरुष अपने आप में कि जिसके निरखने के प्रसाद से यह लग रहा हुआ अंजन भस्म हो जाता है । अपने को निरंजन अनुभव करना यह एक भव्यता का सूचक है । तो यह रूपातीत ध्यानी योगी अपने आपका ठीक उतने रूप में चिंतन कर रहा है जितने रूप से सिद्धप्रभु व्यक्त हुआ करते हैं । आप शक्ति को निरखते हैं तो कोई बात सिद्ध से कम है क्या? यदि कम है तो वह बात कितने ही प्रयत्न किए जाने पर भी उत्पन्न नहीं हो सकती । जितना जो कुछ सिद्ध में है उतना सब कुछ प्रत्येक आत्मा में है, व्यक्त नहीं है, है शक्तिरूप । चैतन्यस्वरूप के नाते यह समान है और उस ही समानता का यह रूपातीत ध्यान अपने आप में चिंतन कर रहा है ।