वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2086
From जैनकोष
तदासौ निश्चलोऽमूर्तो निष्कलंकनो जगद्गुरु: ।
चिन्मात्रो विस्फुरत्युच्चैर्ध्यान ध्यातृविवर्जित: ।।2086।
अमूर्त निष्कलंक आत्मस्वरूप का चिंतन―जिस समय यह योगी निश्चल होता हुआ अपने आपको निरख रहा है कि मैं अमूर्त हूँ, निश्चल हूँ, जो स्वरूप अनुभव में लाया गया है केवल ज्ञानमात्र जो अनुभव का काम है, उस काल में निश्चल है, वहाँ से चलित नहीं और स्वरूपतः स्वभाव में तो कभी भी चलित नहीं हूँ, अमूर्त हूँ । मैं अपने आपको यदि अमूर्त पिंड के रूप में देखने लगूं तो यहाँ कुछ नजर न आयगा । यह ज्ञान यह प्रकाश यह प्रतिभास अमूर्त रूप में ही तो ठहर सकता । मूर्तरूप हो तो प्रतिभास संभव ही नहीं है । यह मैं आत्मा अमूर्त हूँ, निष्कलंक हूँ । जो मेरा ढांचा है, भीतर जो बॉडी है, जिस स्वरूप से मैं रचा हुआ हूँ चिदानंदस्वरूप, उस स्वरूप को देखता हूँ तो उसमें तो वही है, चेतना में तो चेतना ही है, कोई कलंक नहीं है, स्वरूप निरखा जा रहा है । जल के स्वरूप में यदि गर्मी का प्रवेश है तो वह कभी ठंडा किया ही नहीं जा सकता ।
जगद्गुरु अंतस्तत्त्व के आश्रय बिना बरबादी―यह आत्मा जगत् गुरु है । चूंकि सिद्ध प्रभु को जगत् गुरु निरखा है । जो बातें सिद्ध में निरखी जा रही हैं वे सब बातें इस आत्मा में हैं । तो यह तत्त्व भी जगद्गुरु है । समस्त पदार्थों में श्रेष्ठपना यह भी आत्मा में निरखा जा रहा है अपनी शक्तिस्वभाव को लक्ष्य में रखते हुए । इस प्रकार जब यह अपने आपके ध्यान में, एकाग्रता में होकर रहता है तो उस समय यह ध्यान ध्याता के भेद से रहित होकर विकसित होता है । दुनिया के इन लोगों में, इन परिवार संबंधों में, ये मेरे हैं, इनसे मुझे सुख मिलेगा इन बातों में पड़कर इस जीव का कुछ भी विकास न होगा । इन सबसे तो एकदम नेत्र बंद कर ले, इनका विकल्प तोड़ दे और ऐसे अद्भुत साहस के साथ अपने आप में विश्राम किया जाय तो सर्व वैभव विकसित होगा । इन दुनियावी लोगों को अपना माने तो इसमें जीव की बरबादी ही है । जिनको माना कि ये मेरे हैं, ये मेरे थे, उनमें से कोई क्या आपका बनकर रह सका? इतिहास की, पुराणों की बात इस समय छोड़ दो, अपने आपके जीवन में ही निहार लो, किस किसके बीच में आपने यह मेरा है, ये मेरे हैं, इस तरह मानकर रहे थे, बड़े मौज के वातावरणों में रहे थे, पर क्या है आज? कुछ भी नहीं । व्यतीत हुई बातें सब एक स्वप्न ! जैसी लगती है । इतने वर्ष गुजर गए, कितनी ही घटनाएँ जीवन में घट गईं, पर वे आज सब स्वप्नवत् लगती हैं, और जो कुछ आज हैं वे भी स्वप्नवत् हैं ।
प्रतीति का परिणाम―इन सर्व बाह्य समागमों में जिसके मोहबुद्धि नहीं है, ये मेरे सर्वस्व हैं ऐसी जिसकी दृष्टि नहीं है, बह अपने को उन सबसे विविक्त समझता है । और इसी कारण वह अपने को विशुद्ध बना लेता है, अगर प्रतीति खोटी है तो वह अपने को खोटा ही बना डालता है । एक जमींदार का किसी गरीब के साथ मुकदमा चल गया । पेशी का दिन था । कस्बे से रेलवे स्टेशन पहुंचकर रेलगाड़ी से अदालत में पहुंचना पड़ता था । तो इस गरीब ने एक उपाय रचा । पहिले से ही किसी तांगे वाले को दो चार रुपये दे दिये और कह दिया कि देर के अमुक सेठ जब यहाँ आये तो उससे इतनी बात बोल देना कि सेठ जी आपका चेहरा आज कुछ गिरासा तबीयत खराब है क्या? यों ही किसी कुली से और स्टेशनमास्टर से दो-दो चार-चार रुपये देकर सेठ से वही बात कहने के लिए कह दिया । जब सेठ स्टेशन पर पहुंचा तो पहिले ताँगे वाले ने वही बात कही, फिर कुली ने भी वही बात कही, फिर स्टेशन मास्टर ने भी वही बात कही । अब तो उस सेठ को पूरा विश्वास हो गया कि हमारी तबीयत वास्तव में खराब है, नहीं तो ये सब लोग क्यों कहते? लो वैसा सोचने से वह सेठ बीमार हो गया, घर लौट आया । वह गरीब तो पेशी में पहुंच गया, वह सेठ न पहुंच सका । तो उसका फायदा उस गरीब ने उठाया । तो जैसा अपने को बार-बार चिंतन करे वैसा उपयोग बनता है और उसके अनुरूप परिणति चलती है । तो यह रूपातीत ध्यानी अपने आपके स्वरूप के संबंध में ये सब विचार करता है ।