वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2087
From जैनकोष
पुथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि ।
प्राप्नोति स मुनि: साक्षाद्यथान्यत्वं न बुध्यते ।।2087।।
सिद्ध परमात्मा के चिंतन से भी अंत में एकत्व का अनुभवन―यह ज्ञानी ध्यानी रूपातीत ध्यान के प्रसंग में प्रथम तो सिद्ध परमात्मा का चिंतवन करता है-अष्ट कर्मो से रहित, अमूर्त, लोक के शिखर पर विराजमान, शरीर से भी अतीत, कषाय आदिक समस्त विकारों से अतीत प्रभु का ध्यान कर रहा है और इस पद्धति से करता है, पृथक् भाव अर्थात् अलगपने का उल्लंघन कर के साक्षात् एकता को इस तरह प्राप्त हो जाता है कि जिससे पृथक्पने का बिल्कुल भान नहीं होता । तीन मंजिल हैं ध्यान करने के । प्रथम तो दासोहं । मैं दास हूँ, हे प्रभो मैं सेवक हूँ, मैं तुम्हारे चरणों की रज हूँ, और-और भी अनेक प्रकार से परमात्मा की उत्कृष्टता और अपनी निकृष्टता जानकर भक्ति की जाती है । इस पद्धति से भगवान की उपासना कर करके कुछ गुण विकास हो तो दा और छूट गया । सोहं रह गया । यह भक्ति की दूसरी मंजिल है । जो वह है सो मैं हूँ, जो आप हैं सो मैं हूँ । यदि इस बात को कुछ लौकिक विधि में बताया जाय तो यह बात उल्टी जंचती है । दासोहं की मंजिल ऊँची और सोहं की मंजिल नीची जंचती है । दासोहं की मंजिल में निरभिमानता और सोहं की मंजिल में अभिमान की बात जंचती है । और अहं की मंजिल वाले से जनता घृणा करने लगती है । किंतु शांतिमार्ग में अहं के अनुभव का सर्वोत्कृष्ट महत्व है । सोहं के सतत अभ्यास के बाद तीसरी मंजिल में दा भी छूट गया और सो भी छूट गया, सिर्फ अहं रह गया । इस अहं के ध्यान में भीतरी चिंतन की बात चल रही है । इसमें तो सिर्फ अपने आपका ध्यान रह गया । इसमें लौकिक दृष्टि से और भी अधिक अभिमान की बात जंचती है । लेकिन आत्मयोग का यह मनन उत्तम है, मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान । यह है एक बीच की मंजिल । प्रभु में और अपने में स्वरूप का साम्य कर करके इतना मग्न हो जाता है यह ज्ञानी ध्यानी कि वहाँ सो भी उड़कर सिर्फ हं रह जाता है, अर्थात् ज्ञानानंदमात्र केवल निज स्वरूप का अनुभव वहाँ रह गया । तो इस प्रकार उस पार्थक्य का उल्लंघन करके इस ज्ञानी पुरुष ने इस पद्धति से प्रभु का ध्यान किया कि साक्षात् जैसे उसे अन्यत्व का बोध न रहे इस प्रकार से वह ध्यानमग्न हो गया ।
ध्यान में ज्ञानस्वरूप का निरंतर ज्ञान―देखिये, ध्यानी ने क्या किया? ज्ञान में क्या किया जाता है? ज्ञान में जो किया जाता है वही बात देर तक बनाये रहे वह ध्यान में किया जाता है । और इस ज्ञान से व इस ध्यान से उत्कृष्ट एक और ज्ञान है जहाँ केवल ज्ञातृत्व स्थिति हे । वह ध्यान की ऊंची चीज है जहाँ केवल एक जाननहार स्थिति रहती है । उपयोग लगाना, विकल्पों का तोड़ना, निर्विकल्प स्थिति की ओर प्रयास करना, इन सबसे ऊपर केवल एक ज्ञातृत्व की स्थिति है । ज्ञान में कुछ जाना नहीं जाता । परिजन जान लिया, ऋषिजन जान लिया, अन्य-अन्य बात भी जान लिया, यों ही इसी बीच में एक बार अपने स्वरूप को भी जान लें । जानने की ही तो बात है । जिस ओर उपयोग लगाया, जिसको ज्ञेय बनाया उसे जान लिया । तो जानना यह क्या है, ज्ञान का क्या स्वरूप है, इस प्रकार उस स्वरूप को भी जाने । तो ऐसा ज्ञान मात्र जब जानने में आया तो उसी के द्वारा मैं ज्ञानमात्र हूं―ऐसा अनुभव भी पा ले और यह अनुभव दासोहं सोहं के बाद का अनुभव है जो एक स्वरूप का और अपने का भेद नहीं कर रहा ।