वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2105
From जैनकोष
अलौल्यमारोग्यमुनिष्ठुरत्वं गंध: शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् ।
कांति: प्रसाद: स्वसौम्यता च योगप्रवृत्ते: प्रथमं हि चिह्नम् ।।2105।।
अध्यात्मयोगप्रवर्तकों का प्रथम चिह्न―अध्यात्मयोग में जो प्रवेश करते हैं उनके प्रथम चिह्न ये हैं―तो धर्मध्यान में अपना यत्न करते हैं उनका परिचय दिया जा रहा है―प्रथम तो विषयो में इंद्रिय की लंपटता नहीं होती । इंद्रिय के विषय 5 हैं, इन 5 विषयों में इसकी आसक्ति नहीं रहती है । थोडे से यत्न में जो विषयसाधन होने आवश्यक हैं उनमें ही यह गृहस्थ रहता है, और साधुजन तो उनका विकल्प नहीं करते । समय पर आवश्यक होने पर सविधि आहार आदिक कर लिया, पर न विकल्प पहिले और न विकल्प बाद में । इंद्रिय विषयों में लंपटता नहीं रहती । अब सोच लीजिए, जो लोग खाने पीने का बड़ा शौक रखते हैं, बाजार की चाट पकौड़ी जलेबी आदि खाते हैं, बहुत-बहुत चाय पीते हैं, अनेक प्रकार की चीजें पाउडर लिपिस्टिक आदि बिल्कुल व्यर्थ की चीजों का प्रयोग करते हैं क्या उन्हें अपने कुछ कल्याण की भी सुध है? अरे उनकी दृष्टि तो बाह्य में लगी हुई है, उन्हें अपने आत्मस्वरूप की कहाँ सुध है? आप ही बतावो कि जिसकी इन इंद्रिय विषयों में लंपटता है, बाह्य में दृष्टि है वे इस कल्याण की प्राप्ति के पात्र भी हैं क्या? नहीं हैं । तो धर्मध्यान में यत्न करने वालों की यह प्रथम निशानी है कि वे इंद्रिय विषयों में लंपटता नहीं रखते ।
अध्यात्मयोग प्रवर्तकों के शेष चिह्न―धर्मध्यान के प्रवर्तकों का दूसरा चिह्न हैं―मन का चंचल न होना, थोड़ा कहीं मन बाहर में चला भी जाय तो झट स्थिर हो जाय । तीसरा चिह्न है―आरोग्य रहना, चौथी बात है―निष्ठुरता न होना, 5वीं बात है शरीर का गंध शुभ होना, दुर्गंध वाली बात शरीर से न निकलना, योग साधना वाले की बात कही जा रही है । आप सोचेंगे कि इनसे उसका क्या संबंध ?....अरे जब अरहंत अवस्था होती हैं तो शरीर का क्या रूप बनता है, वहाँ अतिशय कर के बनता है, तो कुछ थोड़ीसी बात यहाँ भी दिखती है । एक तो योगी के मलमूत्र का अल्प होना, प्राकृतिक है, क्योंकि योगियों का आवश्यक अल्प आहार होता है । ज्यादा भोजन करने से मलमूत्र की अधिकता होती है, उनका शरीर कांति सहित होता है, अर्थात् शक्तिहीन नहीं होता है, अपने धर्मध्यान के कार्य में प्रमाद न आना, चित्त में प्रसन्नता होना, मन में रंच भी मलिनता न होना, शुद्ध पवित्र होना और शब्दों का उच्चारण सौम्य होना आदिक ये धर्मध्यान के बाह्य चिह्न बताये गए हैं । यह केवल एक पहिचान के लिए कहा गया है, भीतर में तो वे कहाँ लग रहे हैं, किस पावन तत्त्व में अपना उपयोग जमाये हुए हैं वह है उनकी वास्तविक आंतरिक पवित्रता। पर बाह्य में ये भी चिह्न हो जाया करते हैं ।इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा लेनी है कि हम विवेक बनायें, वैराग्य बढ़ाये, क्षमाभाव बढ़ाये और अपने आत्मा के अनुभव करने की धुन रखें, इससे हमारे संकट दूर होगे ।