वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2106
From जैनकोष
अथावसाने स्वतनुं विहाय ध्यानेन संन्यस्तसमस्तसंगा: ।
ग्रैवेयकानुत्तरपुण्यवासे सर्वार्थसिद्धौ प्रभवंति भव्या: ।।2106।।
धर्मध्यान के फल में उत्तम देवगति में जन्म―धर्मध्यान के वर्णन के पश्चात् इस प्रकरण में धर्मध्यान के फल में भव्य पुरुष पर्याय के अंत समय में समस्त परिग्रहों को छोड़कर अपना शरीर छोड़ते हैं और ऐसे पुरुष पुण्य के स्थान में उत्पन्न होते हैं । धर्मध्यान सप्तम गुणस्थान तक कहा गया है । धर्मध्यान की उत्कृष्टता प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत में होती है, वहाँ परिग्रह के त्यागी, केवल आत्मभाव के अनुरागी ज्ञानविलास में रमकर इस पर्याय को छोड़ते हैं तो वे ऐसे स्थानों में उत्पन्न होते हैं जहाँ पुण्य का उदय प्रचुर रहता है―जैसे नवग्रैवेयक, नवअनुदिश, पंच अनुत्तर जिसमें सर्वार्थसिद्धि मुख्य स्थान है । नवग्रैवेयक कहाँ है? यह स्वर्गों से ऊपर है ।
वैकुकंठवासी देवों की चर्चा―थोड़ी चर्चा आज के प्रकरण में स्वर्ग और स्वर्ग से ऊपर निवास करने वाले देवों की होगी । उनके स्थान कहाँ हैं, सोलह स्वर्गों के बाद ग्रैवेयक लगता है, और यों समझिये―जैसे 7 बालक एक के पीछे एक खड़े हो जायें और वे पैर पसारकर हाथ को कमर पर रखकर खड़े हों तो वह लोक का सही आकार बनता है । उसमें जो बीच का बालक है चौथे नंबर का, उस बालक के गले से लेकर जितनी गले की चौड़ाई है उतनी चौड़ी लाइन नीचे तक जमीन तक खींच लें, जितना उस नाली का स्थान है, वहाँ ही त्रसजीव रहते हैं, इस कारण उसे त्रसनाली कहते हैं तो नाभिस्थान पर मध्यलोक है, नाभि से ऊपर ऊर्ध्वलोक है, तो स्वर्ग की रचना बहुत ऊँचे तक चली गई है । इसके बाद ग्रैवेयक की रचना है । ग्रीवा से ग्रैवेयक शब्द बना, और लोग उसे कहते हैं बैकुंठ । और शुद्ध शब्द कहना हो तो वैकंठ । जो लोक का, कंठस्थान है वह है बैकुंठ । वही है बैकुंठ । तो बैकुंठ में जाकर जीव चिरकाल तक रहता है, और लोग उसे मोक्ष मानते हैं, किंतु ऐसा मोक्ष मानते है कि चिरकाल निवास के बाद उसे फिर जन्म लेना पड़ता है तो वह यही ग्रैवेयक हैं । यहाँ भी 23 सागर से लेकर 31 सागर पर्यंत की आयु होती है । एक सागर अनगिनते अरबों खरबों वर्षों का होता है । उसकी संख्या ही नहीं, तो वह चिरकाल हुआ, इतने काल तक वहाँ रहता है, फिर उसके बाद वहाँ से उसे यहाँ जन्म लेना पड़ता है । वहाँ सुख सांसारिक दृष्टि से बहुत कुछ है । वै वेदना रहित हैं, उनका दिव्य काय है, मंद कषाय है, ऐसे पुण्य स्थान में धर्मध्यानी पुरुष उत्पन्न होते हैं, पर इन पुण्य स्थानों में परिग्रह का त्याग कर के ही उत्पन्न हो सकते हैं । मुनिव्रत धारण करके, सकल, संयम धारण करके इन स्थानों में उत्पन्न होते हैं ।
बैकुंठ से ऊपर के देवों का स्थान―स्वर्गों से ऊपर 9 पटलों में कुछ विमान बने हैं । वहाँ नवग्रैवेयक है, उससे ऊपर एक पटल में विमान है उसे अनुदिश कहते हैं । अनुदिश में रहने वाले देव ग्रैवेयक से भी उत्कृष्ट हैं, और उसके ऊपर एक पटल है जहाँ 5 विमान हैं, जिसके बीच में सर्वार्थसिद्धि है और चारों और विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित नाम के विमान हैं । उनमें रहने वाले देव अनुदिशवासियों से भी उत्कृष्ट हैं । उसके ऊपर एक सिद्ध शिला है और उसके ऊपर सिद्धों का निवास है । उन पुण्य स्थानों में ये धर्मध्यानी पुरुष उत्पन्न होते हैं । यहाँ यदि थोड़े से प्राप्त वैभव भोगों का परित्याग कर दिया जाये तो चिरकाल तक ये सुख भोगे ऐसे स्थानों में उत्पन्न होते हैं और कुछ वर्षों के पाये हुए समागम में यह जीव लंपटी हो जाय तो उसकी उत्पत्ति दुर्गतियों में होती है ।