वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2120
From जैनकोष
अथ धर्म्यमतिक्रांत: शुद्धिं चात्यंतिकीं श्रितः ।
ध्यातुमारभते वीर: शुक्लमत्यंतनिर्मलम् ।।2120।।
योगी का शुक्लध्यान के लिये उपक्रम―अब यह योगी धर्मध्यान को अतिक्रांत कर के बहुत ऊँची आत्मसिद्धि को प्राग करता हुआ शुक्लध्यान का ध्यान करने को उद्यत हो रहा है ।धर्मध्यान का बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन चला था, उन सब विशुद्धियों में रहकर जिसने आत्म-शोधन किया अब ऐसा महापुरुष शुक्लध्यान का प्रारंभ करने जा रहा है । धर्मध्यान 7वें गुणस्थान तक बताया है और 8वें गुणस्थान से शुक्लध्यान । इस शुक्लध्यान में बहुत पवित्रता है । राग की वहाँ प्रेरणा नहीं है । धर्मध्यान में तो अनुराग भी था, विकल्प भी था किंतु शुक्लध्यान में राग नहीं, राग की प्रेरणा नहीं । प्रथम शुक्लध्यान में क्वचित् जो कुछ राग परिणमन रहा आया तो रहा आये किंतु न उसका उपयोग है और न उसकी प्रेरणा है । एक शुद्धजानन की स्थिति है, उसी में उपयोग है, ऐसे शुक्लध्यान का प्रारंभ करते हैं ।