वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2121
From जैनकोष
निष्क्रियं करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् ।
अंतर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुक्लमिति पठते ।।2121।।
शुक्लध्यान का साधक पुरुष ऐसे ध्यान में आ गया है कि जहाँ निष्क्रिय अवस्था है, कुछ किया नहीं करनी है । धर्मध्यान के समय तो आसन से बैठना, कुछ उसका भी उपयोग, कुछ अपनी साधना का उपयोग, प्रभु के गुणों के अनुराग का उपयोग ये सब अनुरागवश चल रहे थे किंतु शुक्लध्यान में ऐसी विशुद्ध अवस्था होती है कि वहाँ क्रिया का कुछ उपयोग नहीं है ।शुक्लध्यान प्राय: मिनट दो चार मिनटों जितने काल की चीज है । यद्यपि बताया है कि अंतर्मुहूर्त तक शुक्लध्यान रहता है किंतु 45-48 मिनट की बात नहीं है । कभी ऐसा अनुभव किया होगा कि जब यह उपयोग अपने आप में बसे हुए शुद्ध स्वरूप की ओर चलता है तो यहाँ वहाँ से दिल हटाने में और तद्विषयक ज्ञान के करने में बहुत समय व्यतीत करना पड़ता है और जब उस शुद्ध स्वभाव को ज्ञान में लेते हैं तब वह समय बहुत थोड़ा रहता है, और कहो न भी शुद्ध स्वभाव का अनुभव कर पाये उतने को छूकर ही अथवा दृष्टि से निरखकर ही लौट आता है, बहुत कम समय आता है यह वर्तन जहाँ किसी प्रकार का विकल्प नहीं होता है और एक विशुद्ध ज्ञानस्वरूप का उपयोग रहता है । यह तो यहाँ की बात है जहाँ शुक्लध्यान नहीं, धर्म-ध्यान ही है और फिर श्रेणी में चढ़ते हैं । 7वें गुणस्थान की दो श्रेणी होती हैं―उपशम और क्षपक । जब 7वें के ऊपर 8वें गुण गुणस्थान में पहुंचते हैं, तो वहाँ शुक्लध्यान का प्रारंभ होता है, वह तो निष्कंप अवस्था है । कुछ वहाँ करने की बात नहीं है, इंद्रियातीत अवस्था है, इंद्रिय का वहाँ व्यापार नहीं है, इंद्रिय के द्वारा वह ध्यान या वह स्थिति बनती नहीं है, इंद्रिय के अगोचर है।
अंतर्मुख चित्तस्थिति की श्रेष्ठता―भैया ! जिसकी चर्चा कर रहे हैं वह तत्व, वह स्थिति इतनी उच्च है कि जीव ने प्राप्त नहीं की । यदि उस श्रेणी की अवस्था को, इस शुक्लध्यान को प्राप्त कर ले तो निकट काल में ही निर्वाण होगा । जहाँ रागद्वेष नहीं, मात्र एक ज्ञाताद्रष्टा रहने की स्थिति होती है वह है ध्यान की एक शुद्ध अवस्था । वहाँ ध्यान धारणा नहीं रहती ।धर्मध्यान में तो इस ध्यान की धारणा रहती है पर शुक्लध्यान में नहीं रहती है । इस शुक्लध्यान में चित्त अंतर्मुख रहता है, चित्त भीतर में ही कुछ निरखने के लिए चलता है और इस प्रकार अभिमुख होकर चलता है और इस प्रकार अभिमुख होकर चलता है कि जहाँ यह भी कह सकते हैं कि चित्त का वहाँ नाश हो जाता है, विकल्पों का वहाँ अभाव रहता है, इस प्रकार का अंतर्मुख हो जाता है । यह चित्त तब पनपता है जब बहिर्मुख होता है । जैसे कोई बेल तब पनपती है जब उसे बाहर बढ़ने का अवकाश मिलता है । इसी प्रकार यह चित्त की बेल तब बढ़ती है जब यह बहिर्मुख होता है, बाह्य में बहुत-बहुत विकल्प करता है और जब यह चित्त अंतर्मुख होता है तो इसका पनपना समाप्त हो जाता है, और ज्ञान का विशुद्ध प्रकाश फैलने लगता है ।इस ही स्थिति को शुक्लध्यान कहते हैं ।