वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2123
From जैनकोष
शुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषायरजसः क्षयादुपशमाद्वा ।
वैदूर्यमणिशिखा इव सुनिर्मलं निष्प्रकंपं न ।।2123।।
कषाय के उपशम व क्षय से ध्यान की शुक्लता―आत्मा के पवित्र गुण के संबंध से इस ध्यान का नाम शुक्ल पड़ा है । शुक्ल मायने सफेद । इस शब्द में अनेक मर्म भरे हैं । लाग लपेट रहित हैं भगवान । लाग तो हुआ विभाव और लपेट हुआ शरीर । प्रभु के अब शरीर भी नहीं रहा, ये विभाव भी नहीं रहे । तो जहाँ राग का अभाव होता है वहाँ आत्मा में पवित्रता उत्पन्न होती है और फिर जो कुछ उसके ज्ञान में आता है वह उसका शुक्लध्यान होता है । यह शुक्लध्यान क्योंकि क्षय और उपशम दोनों प्रकार से प्रकट होता है । जो चारित्र मोहनीय का उपशम प्रारंभ करता है वह उपशम श्रेणी में चढ़ता है और जो क्षय प्रारंभ करता है वह क्षपक श्रेणी में चढ़ता है । चारित्र मोह के उपशम से भी व क्षय से भी शुक्लध्यान होता है । किंतु उपशम से पृथकत्ववितर्क विचार नाम का प्रथम शुक्लध्यान ही हो सकता है इससे आगे नहीं, और चारित्र मोह के क्षय की श्रेणी से चारों शुक्ल होते हैं । वह शुक्लध्यान निर्मल है और निष्कंप है, वह समय धन्य है जिस समय आत्मा का उपयोग अपने आत्मा में ही निश्चल होकर ठहर जाय । नीरंग निस्तरंग कोई प्रकार की जहाँ बाधा नहीं, विकल्प नहीं । जो थोड़ी ही देर में संसार से पार हो जायगा ऐसा समय, ऐसा सुयोग, ऐसी परिस्थिति जिन्हें प्राप्त हुई है वे वंदनीय हैं । जिसे कोई लोग असंप्रज्ञातसमाधि कहते हैं । निर्विकल्प समाधि, जहाँ कोई कल्पना नहीं, जहाँ कोई वितर्क नहीं, विचार नहीं और अस्मिता रूप से भी अनुभव नहीं, ऐसी उत्कृष्ट पवित्र प्रभुत्व की स्थिति को असंप्रज्ञातसमाधि कहते हैं । ये सब शुक्लध्यान की स्थितियाँ हैं ।