वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2122
From जैनकोष
आदिसंहननोपेत: पूर्वज्ञ: पुण्यचेष्टित ।
चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्लं ध्यातुमर्हति ।।2122।।
वज्रवृषभनाराचसंहननधारी पूर्वविद् योगी के ध्यानार्हता―शुक्लध्यान का धारक वज्रवृषभनाराचसंहनन का धारी पुरुष होता है । शुक्लध्यान को उत्कृष्ट रूप से निभा सके, ऐसी पात्रता उस पुरुष के होती है जिसका शरीर बज्र के समान पुष्ट है । जिसके हाथ, पैर, कीली आदिक सारे अंग बज्रवत् हैं, जो अत्यंत कष्टसहिष्णु है, जो बधबंधन आदिक अनेक उपद्रव उपसर्ग आने पर भी रंच भी चलित न हो ऐसे बज्रवृषभनाराचसंहनन का धारी पुरुष तथा ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञाता पुरुष शुक्लध्यानी बनने का पात्र होता है । यद्यपि आगम में यह भी बताया है कि अष्ट प्रवचन मातृका का ज्ञान रखने वाले साधु भी उच्च होते हैं । उसका स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि जिस योग्यता में वर्षों समय गुजर जाता है उस योग्यता में अष्ट प्रवचन मातृका का ज्ञान है-भेद ज्ञान, और उसके प्रसाद से जो कुछ निज शुद्धस्वरूप का भान है, आलंबन है उसके आश्रय से वह निर्वाण प्राप्त करता है । किंतु यह बहुत संभव है कि ऐसा साधु जब श्रेणी में चढ़ता है तो उस श्रेणी के समय में इतनी विशुद्धि जगती है कि वहाँ श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम हो जाता है । जब ज्ञानावरण मिटने के लिए है तो मिटने से पहिले श्रुतज्ञानावरण का इतना क्षयोपशम हो जाय कि जहाँ द्वादशांग का ज्ञान हो जाय इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । चूँकि वह श्रेणी का काल बहुत कम है और शीघ्र ही वह सयोग-केवली बन जाता है, अरहंत भगवान बन जाता है । सो उनका जो बहुत समय गुजरा वह अष्टप्रवचन मातृका के बोध में गुजरा और जो सद्व्यवहारिकता का समय था वह सब इसी योग्यता में गुजरा, अत: यह कथन ठीक है और यह भी ठीक है कि द्वादशांग के जानने वाले साधु शुक्लध्यान को ध्याने के योग्य होते हैं । इसके संबंध में सूत्र जी में भी कहा है―शुक्लेचाद्ये पूर्वविदः ।
पुण्यचेष्टित महापुरुषों के शुक्लध्यान का अधिकार―ऐसे महापुरुष जो पुण्य में स्थित हैं, जिनकी चेष्टा, जिनका दर्शन पवित्र है वे 4 प्रकार के शुक्लध्यानों का ध्यान करने के योग्य होते हैं । लौकिक दृष्टि से देखिये―जो शरीर का व्यवहार है, नामवरी है, लगाव है, संपर्क है, ये सब समूल नष्ट हो जायें तो मिलेगा वह विशुद्ध ज्ञानविकास, जिस ज्ञान में समस्त लोकालोक प्रतिभासित होता है । मोही लोग तो सुन कर हैरान होंगे कि जब मैं सबको जानना चाहता था तब तो हम को ज्ञान हुआ नहीं और जब वीतराग हो गए तो ज्ञान हो रहा है, तो उससे फायदा क्या पाया? मोही जन इस प्रकार से सोच सकते हैं, पर जहाँ केवलज्ञान की स्थिति रहती है, ऐसा ज्ञान रहता है तो उसका स्वभाव है कि वह समस्त सत् पदार्थों का जाननहार होता है । तो समस्त सत् को जान लिया इससे प्रभु की परिणति की उपादेयता न समझिये, किंतु ऐसा जानने के साथ अनंत आनंद रहता है, वीतरागता से परम निराकुलता रहती है, उस निराकुलता का आदर्श है प्रभु के । ऐसे शुक्लध्यान को ध्याने के लिए प्रथम संहनन वाला द्वादशांग का वेदी पुण्यमयी चेष्टा वाला योगीश्वर पात्र होता है ।