वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2126
From जैनकोष
श्रुतज्ञानार्थसंबंधाच्छ्रुतालंबनपूर्वके ।
पूर्वे परे जिनेंद्रस्य निःशेषालंबनच्युते ।।2126।।
शुक्लध्यान के पद―पहिले के दो शुक्लध्यानों का संबंध श्रुतज्ञान से है क्योंकि 12वें गुणस्थान तक श्रुतज्ञान रहता है और वहाँ जो कुछ भी चिंतन चलता है वह श्रुतज्ञानार्थ के संबंध से और श्रुतज्ञान के आलंबन पूर्वक चलता है, परंतु जिनेंद्र देव के, अरहंत भगवान के जो शुक्लध्यान होता है वह समस्त आलंबन रहित होता है अर्थात् वहाँ श्रुतज्ञान का आलंबन नहीं है, जिस केवलज्ञान का अभ्युदय हुआ है उस ही के संबंध में होता है । यह बात संसार के आखिरी की चल रही है । जिनका संसार समाप्त हो जाने वाला है ऐसे योगीश्वरों के किस प्रकार के परिणमन होते हैं, उनकी यह चर्चा है । इस शुक्लध्यान का संकेत अन्य दार्शनिक भी करते हैं अपने शब्दों में । जिसे वितर्कानुगतसमाधि, विचारानुगतसमाधि, अस्मिदानुगतसमाधि, आनंदानुगत समाधि व असंप्रज्ञातसमाधि कहते हैं । उन्होंने भी ध्यान के पांच पद तके हैं । जहाँ तर्क वितर्क का निर्णय रखते हुए ध्यान चले, समाधि बने, वह वितर्कानुगतसमाधि है । दूसरी समाधि है विचारानुगतसमाधि । जहाँ नाना तरह के तर्क वितर्क तो दूर हो गए पर एक विचार बन रहा है दृढ़ उसमें प्राप्त जो समाधि है वह विचारानुगतसमाधि है । तीसरी है अस्मिदानुगतसमाधि । जहाँ न वितर्क रहा, न विचार रहा, केवल एक अस्मि का अनुभव है―यह मैं हूँ, इस प्रकार मह प्रत्यय में लगा हुआ जो ध्यान है वह अस्मिदानुगतसमाधि है ।इसके बाद चौथे नंबर की समाधि है―आनंदानुगतसमाधि जहाँ अस्मि का भी भाव छूट गया केवल एक आनंद का ही अनुभव रहा, जहाँ लौकिक ज्ञान ही नहीं रहा ऐसी समाधि को आनंदानुगत समाधि कहते हैं । जहाँ किसी प्रकार का, ज्ञानविकल्प न हो, उसे असंप्रज्ञातसमाधि कहते हैं । यों उत्तरोत्तर प्रकर्षता के ये भेद हैं, किंतु इसमें आप यह पायेंगे कि कई समाधि तो धर्मध्यान में शामिल हैं । जहाँ तर्क वितर्क का, विचार का निर्णय हो वह तो धर्मध्यान की दशा है, जहाँ निर्णय की बात तो नहीं होती किंतु एक पदार्थ के ज्ञान की ओर ध्यान की ही बात होती है, जहाँ राग की रंच प्रेरणा नहीं है उसे शुक्लध्यान कहते हैं । तो इसमें प्रथम दो शुक्लध्यान तो श्रुतज्ञान से संबंध रखते हैं और अंतिम, दो शुक्लध्यान केवलज्ञान के साथ होते हैं, उनका श्रुतज्ञान से संबंध नहीं ।