वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 213
From जैनकोष
याति सार्द्धं तथा पाति करोति नियतं हितम्।
जन्मपड्.कात्समुद्धृत्य स्थापयत्यमले पथि।।213।।
धर्म में मुक्ति का नेतृत्व―मोही जीव को जिन पौद्गलिक पिंडों में रुचि है वह कुछ भी इस जीव के साथ परलोक में नहीं जाती। मकान वैभव परिजन और की तो बात क्या, वह देह तक भी साथ नहीं जाता। जिसके पोषण के लिए जिसके श्रृंगार के लिए जिसको आत्मा मानकर आत्मबुद्धि करके सन्मान और अपमान के लिए माना जाता है ऐसा वह देह भी परलोक में इस प्राणी के साथ नहीं जाता किंतु धर्म यह अवश्य साथ जाता है, और परलोक में भी यह धर्म मेरी रक्षा करता है। आज हम मनुष्य हैं और सब कुछ हमें ख्याल है, कैसा आराम है, कैसा वैभव है, कैसा यह मन चलता है? मरण हो जाने पर तो एकदम बदल होगी। वह बदल क्या होगी? अत्यंत विचित्र और विभिन्न बदल हो सकती है। और की तो बात क्या मनुष्य पर्याय के बाद स्थावर पर्याय भी बन सकती है तब कितनी बड़ी बदल हुई? एक जीवन में कुछ भी बदल हो जाय, आज धनी हैं, कल नहीं है धन तो लोग कहते हैं कि यह तो बिल्कुल बदल गया। बिल्कुल कहाँ बदला? बदलना तो यह है कि अभी मनुष्य भव है और मरकर हो गए कीड़ा-मकौड़ा, पशु-पक्षी तो इस बदल को देखो कितनी विचित्र बदल हो सकती है? और ऐसी बदल होने का समय कोई दूर नहीं है। मरण होने का समय कोर्इ दूर नहीं है। कोई 10 वर्ष में, 5 वर्ष में, कोई 20 वर्ष में, कोई 2-1 दिन में किसी भी समय मरण हो सकता है। मरण के बाद यह जीव जहाँ जायगा वहाँ भी नया समागम, नये संकल्प, नई धारणायें, सब वहाँ नया है। यहाँ का ख्याल ही क्या करेगा? तो जब अति निकट में हमारी बिल्कुल बदल होने वाली संकल्प विकल्प को बढ़ाकर अपने प्रभु को क्यों हैरान किया जा रहा है? ये सब कुछ ठाठ समागम परलोक में इस प्राणी के साथ नहीं जाते किंतु धर्म परलोक में भी इस प्राणी के साथ जाता है।
धर्म का परमोकारित्व―ये परिजन जिनके लिए अनेक पाप भी किए जाते हैं, जिनको विषय बनाकर मोह राग पुष्ट किया जाता है, लोक में क्या ये रक्षा करने आयेंगे? परलोक की बात जाने दो, इस ही भव में ये लोग कुछ रक्षा नहीं कर सकते। जब कभी परिजनों के निमित्त से रक्षा भी हो जाती है तो उस रक्षा का भी कारण धर्म है, न कि वे लोग। धर्म है तो अनेक लोग इसकी रक्षा करने के निमित्त बन जायेंगे। लोक में कहावत है कि खुद के पास वैभव हो तो बीसों पूछते हैं और खुद रोते हैं, वैभवहीन हैं, पुण्यहीन हैं तो कोई पूछने वाला नहीं होता, तो वहाँ भी जो पूछ हुई है वह कहीं दूसरे ने नहीं पूछ की, किंतु खुद के पुण्य ने, खुद के धर्म ने पूछ की। जो भी इस लोक में सुख साधन बनते हैं वह धर्म का प्रताप है, दूसरे का कुछ ऐहसान नहीं। यह सब अपनी ही करनी का फल है। तो धर्म परलोक में साथ जाता है और वहाँ यह धर्म इसकी रक्षा करता है। और रक्षा भी एक सांसारिक ढंग से नहीं, विषयों के साधन जुटा दे, इस रूप से नहीं, ये भी साथ अपनी सीमा में चलते हैं किंतु देखिये तो धर्म कैसा इसकी रक्षा करता है। यह धर्म प्राणियों का हित करता है। संसार के सर्वसंकटों से छुटाकर, विषय कषायों के कीचड़ों से निकालकर इसे मोक्षमार्ग में भी उत्पन्न कर देता है। इतनी बातों में से परिजन अथवा मित्रजन जिनसे बहुत बड़ा स्नेह है कोई कर सकते हैं क्या? अर्थात् यहाँ का कोई भी समागम न परलोक में साथ जाता है और न इस जीव की रक्षा करता है, न इसका हित करता है और न इसे विषयों से निकालकर निरापद स्थान में पहुँचा सकता है। सब बातों के करने में समर्थ यह धर्म है।
धर्म का अंत:निवास―धर्म कहीं बाहर नहीं है। कहीं पैसों से खरीदकर मिल जाय अथवा अपने देह का बल दिखाने से मिल जाय अथवा किसी प्रकार की कोई कूटनीति से मिल जाय ऐसा नहीं है। धर्म आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का परिणमन है और वह एक निरपेक्ष स्वाधीन रूप के स्वभाव रूप है। वह कहीं मन, वचन, काय के प्रयत्नों से न मिलेगा किंतु इन सब योगों को, कषायों को, श्रमों को परित्याग करके एक परमविश्राम की स्थिति बनाये तो मिलेगा। यह प्रयत्न मोही जीवों को बड़ा कठिन लगता है, किंतु अपने आपके कल्याण का साधन करने का यत्न तो स्थायी है, सुगम है, दृष्टि फिरने की बात भर है। अपने-अपने आपकी दृष्टि नहीं बनी है तो अत्यंत दूर है। जैसे कागज बराबर पर्दा आगे हो, उस पर्दे के पीछे कुछ भी चीज हो, वह तो इससे अत्यंत परे है। इसी प्रकार आत्मदृष्टि यदि नहीं है तो मेरे ही निकट क्या, में ही तो आत्मा हूँ, पर मेरा ही स्वभाव मेरा ही धर्म, मेरी ही शांति मुझसे दुर्लभ हो जाती है केवल एक अपने आपकी दृष्टि न होने से। अपने आप आपकी दृष्टि हो, अपने आपका परिज्ञान हो और अपने आपमें रमण करने का पुरुषार्थ हो, यही रत्नत्रय का रूप है, यही धर्म का रूप है। इस ही में 10 लक्षण धर्म समाया हुआ है, यही उत्कृष्ट अपने आपकी दया है, ऐसा अपने धर्म का परिपालन हो तो संसार के संकटों से हम सदा के लिए मुक्त हो सकते हैं। यह सब अपना काम है, और बिना किसी दिखावट के गुप्त होकर अपने आपके कल्याण की भावना से अपने को अपने ही अंतरंग में करना है। धर्म ही वास्तव में हम आपका शरण है। हम अनेक प्रयत्न करके अपने विशद ज्ञान द्वारा जब इस धर्म को प्राप्त करें यही एकमात्र शांति का और एक अभ्युदय शब्द उपाय है। अन्य कोर्इ भी शांति का उपाय नहीं है।