वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 214
From जैनकोष
न धर्मसदृश: कश्चित्सर्वाभ्युदय साधक:।
आनंदकृजकंदश्च हित: पूज्य: शिवप्रद:।।214।।
धर्म का सर्वसाधकत्व―इस जगत में धर्म के समान अन्य कुछ भी वस्तु सर्व प्रकार के अभ्युदय का साधक नहीं है। उदय शब्द और अभ्युदय शब्द―इन दोनों के शब्द अंतर है। उदय का अर्थ है निकलना, विकास होना और अभ्युदय का अर्थ है सब ओर फैलाव होना। अभि उपसर्ग है जिसका अर्थ है सर्व ओर से उदय मायने विकास होना। तो धर्म में ऐसा प्रताप है कि जिस आत्मा में धर्म का विकास है उस आत्मा में समस्त गुणों का युगपत् विकास होता है। भले ही किसी भेददृष्टि में कम अधिक विकास हो, किसी का कम विकास है, किसी का अधिक है। जैसे भेददृष्टि में कहा जाता है ना कि श्रद्धा गुण का विकास पहिले पूर्ण होता है, ज्ञान का विकास इसके पश्चात् पूर्ण होता है और चारित्र का विकास इसके पश्चात् पूर्ण होता है, लेकिन तीनों का विकास एक साथ अभ्युदित होता है। जिस ही काल में दर्शन मोहनीय का, अनंतानुबंधी का विनाश होता है उस ही काल में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों का विकास होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की तो बहुत प्रसिद्धि हैं, किंतु सम्यक्चारित्र के संबंध में कुछ लोग ऐसा ख्याल रखते हैं कि सम्यक्त्व प्रकट होने के बाद जब वह पंचम या सप्तम गुण स्थान में जाय तब से चारित्र प्रवृत्त होता है लेकिन जो चारित्र योग का संबंध रखता है, योगनिवृत्ति का संबंध रखता है वह चारित्रप्रवृत्ति निवृत्तात्मक है।
चारित्र ही धर्म का मूल―चारित्र का मूल स्वरूपाचरण है और चारित्र की परिपूर्णता भी स्वरूपाचरण है। अणुव्रत और महाव्रत में प्रवृत्तियों की विशेषता है और वे प्रवृत्तियाँ स्वरूपाचरण में विकास बने, उसके विकास में बाधायें न आयें इसके लिए हैं। चारित्र तो एक ही प्रकार का होता है। जो आत्मस्वरूप है उस स्वरूप में मग्न होना, उस रूप आचरण होना, परिणाम होना इसका नाम है चारित्र। अब इस स्वरूपाचरण का विकास हो और विकास होकर परमात्म अवस्था में स्वरूपाचरण की परिपूर्णता होना, यही तो क्रम है। किंतु सम्यक्त्व जगने के साथ ही स्वरूपाचरण भी हो जाता है। तो धर्म में ऐसा प्रताप है कि वह समस्त अभ्युदयों का साधक है। लौकिक दृष्टि से जो इंद्रादिक अथवा महापुरुष आदि के जितने भी पद हैं, इनकी विभूतियाँ हैं। इन अभ्युदयों का साधक भी धर्म है। वस्तुत: धर्म के साथ जो अंतरंग की मति लग रही है वह अनुराग इन संपदाओं का कारण है। धर्म तो एक स्वच्छता का ही कारण है। तो इस जगत में धर्म के समान अन्य कुछ भी समस्त प्रकार के अभ्युदयों का साधक नहीं है।
श्रेय का मूल चारित्र―यह धर्म ही मनचाही संपदा को देने वाला है। किस तरह? धर्म नाम उसका है जहाँ चाह नहीं रहती। जहाँ चाह नहीं रही वहाँ मनचाही चीज मिल गयी। सब मिल गया। वहाँ यह भेद नहीं रहता कि यह मिला है, यह नहीं मिला है। जहाँ चाह नहीं रही कि मन चाहा ही सब मिल गया। और यह धर्म आनंदरूपी वृक्ष का कंद है। जैसे वृक्ष कंद से अंकुर उत्पन्न होता है इसी प्रकार इस धर्मकंद से आनंद उत्पन्न होता है। वहाँ धर्म नहीं है जहाँ परिणाम कष्ट रूप अनुभव कर रहा हो। किसी तपस्या में, किसी धार्मिक समारोह प्रवृत्ति के प्रसंग में कुछ क्लेशरूप परिणमन चलता हो वह धर्म नहीं है। धर्म तो आनंद को ही साथ लेकर रहता है। धर्म के साथ कष्ट का कोई काम नहीं है। तो इस धर्म वृक्ष कंद से आनंद के अंकुर उत्पन्न होते हैं। धर्म कंद है और आनंद अंकुर हैं, वृक्ष है, ये फल फूल हैं। इस प्रकार यह धर्म हितरूप है। पूजनीय है और मोक्ष का देने वाला है। तीन विशेषण दिये हैं धर्म हितरूप है, पूज्य है और धर्म का देने वाला है। चूँकि यह धर्म हितरूप है इस ही कारण पूज्य है, जो हितकर हो वही पूज्य कहलाता है। पूज्य का प्रयोजन क्या? कोई हमारा हित करता रहे और हम उसे पूजते रहें, क्या ऐसी कभी किसी की प्रवृत्ति बनी है। जो हितकर हो जिससे हित सिद्ध होता है बस वही हमारे लिए स्मरणीय है, पूजनीय है और उसकी ही शरण लेकर उसका ही आदर्श मानकर हम रहें। तो यह धर्म हितकर है अतएव पूज्य है और मोक्ष का देने वाला है, मोक्ष नाम है केवल रह जाने का। सबसे छुटकारा पाकर यह मैं आत्मा जैसा सहज ही हूँ वैसा ही केवल रह जाऊँ इस ही का नाम मोक्ष है। तो ऐसा कैवल्य मिलना अर्थात् खालिस आत्मा का रह जाना जिसके साथ किसी अणु का लेप नहीं है, केवल खालिस है―ऐसी स्थिति हो जाय इसका नाम मोक्ष है।
स्वभावदृष्टि ही मोक्ष का मूल―इस मोक्ष के उपाय में हमें कैवल्य की दृष्टि बनानी होगी। मैं केवल हूँ। इस संसार अवस्था में भी मैं केवल हूँ, अकेला हूँ, केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ, यह भी मैं किसी दूसरी चीज से मिलकर कोई कंद नहीं बन गया, कोई एकमेक नहीं बन गया। इस मिलावट की स्थिति में भी जहाँ शरीर और कर्मों का प्रसंग लग रहा है वहाँ भी मैं केवल अकेला हूँ, ऐसा अपने आपको केवल निहारा जाय और यह निरख जैसी उतनी दृढ़ता पकड़ता जाय बस वैसा ही हम धर्म विकास में बढ़ते जाते हैं और इस कैवल्य का जैसे-जैसे विकास होता है बस वही गुणस्थान के ऊँचे बढने की बात है। जो जितना अपने इस कैवल्य को प्रकट करता है उसका उतना ही ऊँचा गुणस्थान है। और जहाँ यह कैवल्य गुणों के क्षेत्र में पूर्ण प्रकट हो जाता है उसे अरहंत अवस्था कहते हैं और प्रदेशों के क्षेत्र में जहाँ कैवल्य पूर्ण प्रकट हो जाता है उसे अरहंत अवस्था कहते हैं और प्रदेशों के भीतर में जहाँ कैवल्य पूर्ण प्रकट हो जाता है उसे सिद्ध अवस्था कहते हैं। ऐसा धर्म हमारा हमारे ही स्वभाव के हैं, हमारे ही पास है। हम ही धर्मरूप हैं, केवल एक अपने आपको बाह्य में न उलझाकर अपनी-अपनी ओर दृष्टि भर देना है। मान लिया है कि यह मैं सहज स्वरूपमात्र हूँ। बस इस सहजस्वरूप की दृष्टि से इस सहज स्वरूप मात्र मैं हूँ, इस प्रकार का निरंतर प्रत्यय रहने से और ऐसा ही उपयोग बना रहने से यह कैवल्य प्रकट होता है। धर्म प्रकट होता है। धर्म का मूल स्वरूप इतना मात्र है, ऐसी धर्म की हमारी दृष्टि बने और अन्य बातें कहने व सिखाने की तो जरूरत है ही नहीं।
मंगल कौन―जिसकी धर्मदृष्टि बनी है वह उस धर्म परिणमन का अनुभव करने के पश्चात् यदि कदाचित् विकल्प उठे तो वह यह निर्णय रखता है कि धर्म ही मंगल है, धर्म ही लोकोत्तम है और धर्म ही शरण है। चत्तारिदंडक में 4 चीजों को मंगल कहा, लोकोत्तम कहा और शरण कहा। उसमें 4 बातें ये धर्म ही बतायी गई हैं और इससे पहिले जो 3 शरण बताये गए हैं वे व्यवहार शरण हैं। वह हमारी प्राक् पदवी में आलंबनरूप हैं और जब-जब हम इस धर्म की शरण में स्थिर नहीं हो पाते हैं तब-तब धर्म का विकास जो कर रहे हैं उनके शरण की भावना रखी जाती है, उनके गुणों का स्मरण किया जाता है, वे तीन हैं―अरहंत, सिद्ध और साधु। साधु में आचार्य, उपाध्याय और मुनि गर्भित हैं तो यों पंच परमेष्ठी ही शरण हैं यों कह लीजिए या अरहंत, सिद्ध, साधु शरण हैं। साधु तो इस धर्म के विकास में लग रहे हैं बढ़ रहे हैं और अरहंत गुणों के क्षेत्र में पूर्ण विकसित हैं और साधु सर्वप्रकार से अर्थात् प्रदेशों की दृष्टि से भी पूर्ण अनाकुल हैं। इस प्रकार धर्म का विकास करनहारे धर्म के पूर्ण विकास को प्राप्त कर चुकने वाले देव और गुरु का मंगल और लोकोत्तम और शरण भाया है। पर ज्ञानी का प्रयोजन उद्देश्य लक्ष्य एक धर्म का शरण लेने का होता है। यह धर्म हितरूप है, पूज्य है और मुक्ति का देने वाला है। उस धर्म की शरण गहने का निरंतर ध्यान रखना चाहिए।