वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2131
From जैनकोष
पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र विद्यते ।
सवितर्कं सवीचारं सपुथक्त्वं तदिष्यते ।।2131।।
पृथक्त्ववितर्कवीचार का शाब्दिक लक्षण―अब प्रथम शुक्लध्यान का स्वरूप कुछ स्पष्ट शब्दों में बतला रहे हैं कि जिस ध्यान में पृथक्-पृथक् रूप से वितर्क हो, श्रुत का परिवर्तन हो, जिसमें अलग-अलग श्रुतज्ञान बदलते रहें, जिस एक ध्यान में नाना ज्ञान चलते रहें, ज्ञान के विषय भी बदलते रहें उस ध्यान को सवितर्कसवीचारसपृथक्त्व ध्यान कहते हैं । विषय अलगअलग, ज्ञान भी अनेक और योग भी अनेक चलते हैं । वे शब्द भी बदले जा रहे हैं, जिन अंतर्जल्पों से अभी ध्यान किया जा रहा था, अब वे अंतर्जल्प न रहकर दूसरे अंतर्जल्पों से ध्यान चलता है । यों प्रथम शुक्लध्यान को पृथक्त्ववितर्कवीचार बताया गया है ।