वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2137
From जैनकोष
अर्थादिषु ध्यानी संक्रामत्यविलंबितं यथा ।
पुनर्व्यावर्त्तते तेन प्रकारेण स हि स्वयम् ।।2137।।
योगी का प्रथम शुक्लध्यान में ज्ञेयादिव्याबर्तन―जो ध्यानी अर्थव्यंजन आदि योगों में जैसे शीघ्रता से संक्रमण करता है वह ध्यानी अपने आप पुन: उसी प्रकार से लौटता है । जैसे बहुत हल्के गर्म जल में, जब कि उस जल के ऊपर कुछ बिंदु नहीं आ पाती, जब जल गर्म होता है, तो उसके ऊपर कुछ चने से, बताशे से झलक उठते हैं ना, तो जब जल अति साधारण गर्म हो कि उस जल के ऊपर कोई बिंदु नहीं उठता, कोई बहान नहीं होता, फिर भी आप देखो-उस जल के अंदर ही अंदर कुछ बिंदुवें चलने लगती हैं, उसके बाद फिर अधिक गर्म होने पर उसका रूप कुछ बड़ा होता है और ऊपर कुछ सरसों के दाने बराबर बिंदुवें उत्पन्न होने लगती हैं । तो जैसे गुनगुने जल में भीतर ही भीतर बिंदुवों का संचरण होता है, ऊपर भी चलता है, लौट भी आता है, बहुत गर्म जल में तो जो बिंदु ऊपर जाते हैं वे लौटते नहीं हैं, वे ऊपर मुंह बा करके अपना अस्तित्व खो देते है, किंतु उस कुनकुने जल में अंदर की बिंदुवें कुछ उठती भी हैं, कुछ उठकर लौट भी आती हैं, उनका संचरण यथा तथा भी होता है, यों ही समझ लीजिए कि वहाँ संताप नहीं है आग का, अतएव कुछ एक मंद आग में जहाँ संज्वलनकषाय अत्यंत मंद है, सप्तम गुणस्थान से भी अधिक मंद है ऐसी स्थिति में उनके अंदर ही राग का मुख न बाकर स्वयं सहज अर्थ योग वखन आदिक के संचरण चलते रहते हैं और वे स्वयं होते हैं । स्वयं बदलना, स्वयं लौटना, यह सब उनके ज्ञान में चलता है । यह एक उस ऊँची समाधि की बात चल रही है जबकि योगी अब अपना व्यवहार और संसार के लाग लपेट से निवृत्त होने वाला है और कुछ ही काल में केवलज्ञान प्राप्त करने वाला है, ऐसे ही वहाँ पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान में पदार्थो के विज्ञान का परिवर्तन चलता है ।