वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 215
From जैनकोष
व्यालानलोरगव्याघ्रद्विपशार्दूलराक्षसा:।
नृपादयोऽपि दुह्यंति न धर्माधिष्ठितात्मने।।215।।
धर्मी के सर्वत्र अबाधकत्व―जिसका आत्मा धर्म से अधिष्ठित है अर्थात् जिसका आत्मा धर्ममय है, धर्म से संयत है, धर्मरूप जिसका परिणमन है ऐसे आत्मा के प्रति कोर्इ भी अन्य पुरुष अन्य जीव द्रोह नहीं कर सकता है। जैसे सर्प विषधर है। उसमें ऐसा भयंकर विष होता है कि डस लेने पर मनुष्य प्राय: मर जाता है। लेकिन विष को नष्ट करने वाली परम औषधि है तो वह धर्म है। शुद्ध स्वभाव की दृष्टि, शुद्धस्वभाव का आलंबन शुद्ध स्वभाव में मग्न होने की प्रवृत्ति। यह धर्म ऐसा प्रतापवान है कि यह मंत्रमूर्ति बन जाता है। मंत्रों का बांचना और मंत्रों का उच्चारण ध्यान साधन एक यह मार्ग है और एक यह मार्ग है कि मंत्र का विकल्प ही न करे, किंतु एक धर्म की आराधना में लगा हो, रागद्वेष मोह से अपने को दूर रखता हो, ऐसी पवित्रता जग रही हो तो यह पवित्रता तो साक्षात् मूर्ति है और ऐसे धर्माधिष्ठित आत्मा के प्रति सर्प भी द्रोह नहीं करता, सर्प उस पर नहीं आक्रमण करता है और कदाचित् आक्रमण भी करे तो उसका आक्रमण विफल हो जाता है। भक्तामरस्तोत्र में इन सब बातों पर बहुत विशेष स्तवन किया गया है। ऐसा धर्म करने वाले के विशेषतया पुण्यबंध चलता रहता है जब तक राग भाव हैं और पुण्य का भी निमित्तनैमित्तिक संबंध है, तब तक धर्म का मुक्ति से संबंध है और पुण्य का इन लौकिक चमत्कारों से संबंध है। जैसे सीता जी की अग्नि परीक्षा हुई थी। तब यह नियम तो नहीं बनाया जा सकता कि जो शीलवान पुरुष हों, शीलवती स्त्री हों उन्हें अग्नि में डाल दिया जाय, तो नियम से अग्नि पानी बन जाय, ऐसा तो नहीं है, लेकिन शीलवान पुरुषों की अंतरवृत्ति से ऐसा विशिष्ट पुण्यबंध भी होता रहता है, तो उस पुण्य में यह सामर्थ्य है कि उसके निमित्त से अग्नि भी जल बन जाय ऐसा साधन बन जाय वह एक विशिष्ट चीज है। लेकिन ऐसा विशिष्ट पुण्यबंध धर्मात्मा पुरुषों के हुआ करता है इसलिए धर्म का फल कह दिया गया। तो ऐसे धर्माविष्ट आत्मा के प्रति अग्नि भी शांत हो जाती है, जलमय हो जाती है। जो होता है उन प्रसंगों में और जो होना चाहिए वे सब साधन मिल जाते हैं और उनसे ये सब विपदायें शांत हो जाया करती हैं।
धर्मी के पुण्य का फल लोकोत्तरता―धर्मात्मा पुरुषों के प्रति विष भी द्रोह नहीं करता। पूजा की प्रस्तावना में कहते हैं ना कि भूतप्रेत वैताल विष निर्विषता को प्राप्त हो जाते हैं। बड़े-बड़े क्रूर, व्याघ्र, सिंह, हस्ति आदिक भी धर्मात्मा पुरुष के निकट शांत बन जाते हैं। जैसे यहाँ कोई बड़ा क्रोध करके आया हुआ पुरुष किसी शांत संत के निकट अपने क्रोध को बुझा लेता है तो एक उसने अपने में प्रभाव डाल लिया है। ऐसे ही ये क्रूर जानवर भी धर्मात्मा संतोषी शांत पुरुष के निकट आकर उनकी मुद्रा को निरखकर ये भी शांत हो जाते हैं। राक्षस दैत्य व्यंतर खोटे देव भी धर्मात्मा पुरुष के प्रति द्रोह नहीं करते हैं वैसे भी अंदाज कर लो जैसे कि आज कल कोई लोग भूत लगे दिखते हैं कोई क्षेत्र पर जाता है वहाँ भूत बोलने लगता है बकने लगता है, ऐसी स्थिति बनती है तो उनका दिल स्वयं ठीक नहीं है और उन्होंने अपने दिल में ऐसी कल्पना गढ़ डाली है कि उन कल्पनाओं का ही उन पर भूत है, अन्य कोई व्यंतर भूत नहीं है और चूँकि वे दूसरों से सुनते रहते हैं तो वैसी ही अपनी क्रिया करने लगते हैं। जिसका चित्त विशुद्ध है, हृदय धर्म से ओतप्रोत है, तान जिसका निर्मल है, जिसके सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ है, धर्म की जिसके अडिग श्रद्धा है, जिसने व्यवहार में मंत्र पंचपरमेष्ठी को ही शरण माना है और परमार्थ शरण निजस्वभाव की जिसकी दृष्टि बनी रहती है ऐसा पुरुष भूत आदिक से कहाँ प्रेरित होता है? तो अपना चित्त दृढ़ हो अपने धर्म में अपनी स्थिरता हो तो वहाँ ये राक्षस आदिक भी द्रोह नहीं कर सकते हैं। जो धर्मात्मा पुरुष होते हैं उनसे राजा आदिक भी द्रोह नहीं किया करते हैं। यों यह धर्म ही सर्व प्रकार के द्रोहों को नष्ट करने वाला हैं। अथवा यों कह लीजिए कि ये ही सबके सब सर्प, अग्निविष, व्याघ्र, हस्ति, सिंह, राक्षस, राजा आदिक धर्मात्मा पुरुष के रक्षक होते हैं। कोई घटना ऐसी होती है कि सर्प भी इनके रक्षक हो जाते हैं, अग्नि रक्षक हो जाती है। जो विष प्राण हर लेता है वह कभी-कभी खा लेने से अनेक रोग दूर हो जाते हैं कई पुरुषों पर ऐसी घटनाएँ भी घटी। धर्म के प्रताप के प्रसंग में ये बातें इसलिए बराबर कही जा रही हैं कि धर्म का माहात्म्य जानकर लोग इस धर्म में अपनी रुचि बढ़ायें।