वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2152
From जैनकोष
अलब्धपूर्वमासाद्य तदासौ ज्ञानदर्शने ।
वेत्ति पश्यति निःशेषं लोकालोकं यथास्थितम् ।।2152।।
प्रभु के समस्त लोकालोक का ज्ञातृत्व द्रष्टत्व―जीव ने केवलज्ञान और केवलदर्शन कभी नहीं प्राप्त किया था । उनकी प्राप्ति होगे के बाद फिर इनका कभी वियोग नहीं होता । अनंतकाल तक केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप परिणमन चलता ही रहेगा । वह प्रभु ऐसी अलब्ध पूर्ण विशुद्धि को पाकर ज्ञान दर्शन की प्राप्ति कर के अब समस्त लोक को जानता और देखता है । यद्यपि निश्चयनय से प्रत्येक जीव अपने आपको ही देखता है और जानता है । ये प्रभु तो अत्यंत निर्मल हो चुके हैं । जो मलिन जीव हैं वे भी निश्चय से अपने को जानते हैं और अपने को देखते हैं । वे अपने विभावोंरूप परिणमते और उस ही रूप अपना उपयोग बनाये रहते हैं । किंतु किसी भी वस्तु में यह सामर्थ्य नहीं है कि अपने गुण अथवा पर्याय अपने प्रदेशों को कहीं बाहर रख दे । परिणमन को मीमांसक सिद्धांत में कर्म शब्द से कहा गया है । जीव के जितने भी परिणमन होते हैं वे सब जीव के अपने ही प्रदेशों में होते हैं । किंतु ज्ञान में जो विषय बना है उस विषय की अपेक्षा से व्यवहार से यह कहा जाता है कि भगवान लोकालोक को जानते हैं । जैसे यहाँ भी व्यवहार से यह कहा जायगा कि हम चौकी आदिक अनेक पदार्थों को जानते हैं । निश्चय से तो चौकी आदिक पदार्थों को ग्रहण करने वाला जो भीतर में परिणमन है, ज्ञेयाकार हुआ है उसको जानते हैं । तो ऐसा कहने से कहीं यह अर्थ नहीं होता कि भगवान लोकालोक को जानते ही नहीं हैं । वे तो व्यवहार से जानते हैं, वह मिथ्या है ऐसी बात नहीं है किंतु नय पद्धति से मर्म समझना चाहिए । बातें दोनों यथार्थ हैं, प्रभु अपने को जानते हैं और समस्त लोकालोक को जानते हैं । जैसे यह बात यथार्थ है कि हम अपने को जानते हैं और जितने सामने खंभा चौकी आदिक जो कुछ हैं उन्हें भी जानते हैं, ये अयथार्थ कुछ नहीं हैं, किंतु नयपद्धति से विवेचना करने पर यह कहना ही होगा कि निश्चयनय एकत्व को विषय करके प्रकाश डालता है और व्यवहारनय अनेक पदार्थ अथवा औदयिक भावों का विषय कर के बताता है । तो इस दृष्टि से निश्चय से तो अपने को जानते हैं और व्यवहार से अन्य पदार्थों को जानते हैं । प्रभु भी समस्त लोकालोक के जाननहार हैं और इस प्रकार के जाननहार अपने आपके आत्मा का दर्शन करते हैं, इससे यह भी कह सकते कि लोकालोक को जैसे केवलज्ञान ने जाना इसी प्रकार दर्शन में लोकालोक को देखा । ज्ञान और दर्शन में फिर भी आंतरिक का अंतर है । व्यवहार में भी अंतर है । समस्त लोकालोक को जानने वाले आत्मा को दर्शन में देखा तो अब एक परंपरया कहा जायगा कि दर्शन में प्रभु समस्त लोकालोक को भी देख डालते हैं ।