वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2151
From जैनकोष
आत्मलाभमथासाद्य शुद्धिं चात्यंतिकीं पराम् ।
प्राप्नोति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् ।।2151।।
उत्कृष्ट शुद्धि के कारण प्रभु में केवलज्ञान व केवलदर्शन की निरंतर उपलब्धि―घातियाकर्मों का नाश होने के अनंतर आत्मलाभ को प्राप्त हुआ यह उत्तम पुरुष अत्यंत उत्कृष्ट शुद्धता को पाकर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करता है, केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोकालोक को एक साथ स्पष्ट जानता है और केवलदर्शन के द्वारा यह ऐसे ज्ञाता आत्मा को अपने दर्शन में लेता है । तो इस प्रकार भगवान के केवलज्ञान और केवलदर्शन उद्भूत होते हैं । उपयोग क्रमश: 12वें गुणस्थान तक चलता है । यद्यपि आत्मा में जितने गुण हैं उन सब गुणों का निरंतर परिणमन होता है, ज्ञानगुण भी निरंतर परिणमता रहता है और दर्शन गुण भी निरंतर परिणमता है किंतु उपयोग छद्मस्थ अवस्था में क्रमश: होता है । ज्ञान और दर्शन तो निरंतर परिणमते ही चले जाते हैं, किंतु उनका उपयोग 12वें गुणस्थान तक क्रम से होता है, और चूँकि उपयोग लगाने की बात नहीं रही ऐसे इस 13वें गुणस्थान में, जहाँ समस्त ज्ञानावरण व दर्शनावरण का क्षय है अतएव केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ उपयोग में होते हैं ।