वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2154
From जैनकोष
इंद्रचंद्रार्कभोगींद्रनरामरनतक्रमः ।
विहरत्यवनीपृष्ठं स शीलैश्वर्यलांछित: ।।2154।।
विश्ववंद्य अरहंतदेव का पवित्र विहार―इंद्र चंद्र सूर्य धरणेंद्र मनुष्य और देवों से नमस्कृत हुए हैं चरण जिनके अर्थात् जिनके चरणों में ये देवेंद्र नरेंद्र सब वंदना करते हैं ऐसे भगवान शील और ऐश्वर्य आदिक समस्त उत्तम गुणो से युक्त होकर पृथ्वीतल पर विहार करते हैं । 8 वर्ष का बालक साधु होकर श्रेणी में आकर चार घातिया कर्मों का क्षय करके अरहंत भगवान बन जाय और आयु हो उसकी अरबों खरबों वर्ष की तो समझ लीजिए कि वह अरबों खरबों वर्ष तक अरहंत रहकर इस लोक में बिहार करता है और जो सब जीवों के परिचयी हैं, जिनकी दिव्य ध्वनि से, जिनके दर्शन स्मरण से लोग अपने पापों को धो डालते हैं । क्यों जी कितना अच्छा लगता होगा वह 8-9 वर्ष का भगवान, लेकिन अरहंतदशा प्राप्त होने पर बालपने का, वृद्धपने का रोग का, जिस किसी भी' प्रकार का वहाँ दर्शन नहीं होता । परमौदारिक युवावस्थासंपन्न दिव्य ज्योतिर्मय शरीर के धारी होते हैं सब अरहंतदेव । जिनको सम्यग्दर्शन नहीं हुआ, ऐसे बालक 8 वर्ष की उमर में भी इतना विशिष्ट क्षयोपशम प्राप्त कर सकते हैं कि वे सम्यक्त्व पैदा करें । लेकिन लोगों ने तो अपने बच्चों को ही विनतियाँ रटा रखी हैं, वे पढ़ लें, राजा राणा क्षत्रपति हाथिन के असवार आदि.... । उन्हें बता दिया जाता है कि ये बारह भावनायें हैं, इन भावनाओं को भाने से यह फल प्राप्त होता है । यों उन बच्चों को तो वह पाठ लोग रटा देंगे, पर जिन्होंने स्वयं इस संसार का कुछ अनुभव किया है कि यहाँ वास्तव में कोई शरण नहीं है, यहाँ की सब असार बातें हैं आदि, उन्हें स्वयं अपने प्रति यह सोचना चाहिए कि हम इन बच्चों के जिम्मेदार नहीं, हम तो अपने आपके जिम्मेदार बनें, हम अगर इस प्रकार की भावनायें भायें तो हम स्वयं इस प्रकार का फल पायेंगे । यह मनुष्यभव यों ही नहीं मिल जाता है । बहुत काल में बहुत सुयोग से मनुष्यभव प्राप्त हुआ है, तो इसे यों ही व्यर्थ के कामों में खो देना कोई बुद्धिमानी नहीं है । हमें तो अपने आत्मा का ध्यान करके, आत्मस्वभाव का आलंबन कर के कुछ विविक्तता, विशुद्धता उत्पन्न करनी ? चाहिए । ये प्रभु त्रिलोक वंदित होकर इस पृथ्वी तल पर विहार करते हैं ।