वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2155
From जैनकोष
उन्मूलयति मिथ्यात्वं द्रव्यभावमलं विभु: ।
बोघयत्यपि निःशेषं भव्यराजीवमंडलम् ।।2155।।
प्रभु के निमित्त से भव्य जीवों का उद्बोधन―सर्वज्ञ भगवान इस पृथ्वी तल पर विहारकर के जीव के द्रव्यमल और भावमल मिथ्यात्व को जड़ से नष्ट करते हैं । नाश तो करेगा जीव स्वयं, पर उसे देशना मिलती हैं, उपदेश मिलता है, इस निमित्त से इस भाषा में बताया है कि वे प्रभु सर्व जीवो के मल मिथ्यात्व को नाश करते हैं और समस्त भव्य जीव रूपी कमलों की मंडली को प्रफुल्लित करते हैं । देखिये―घर में, परिजन में वैभव में रम करके भी खुशी होती है और साधु संतों के निकट रहने में, उनकी उपासना करने में उनके गुणों की ओर अपना उपयोग रखने में भी प्रसन्नता होती है । लेकिन इन दोनों प्रसन्नतावों में भारी अंतर है । यह धर्म संबंधी प्रसन्नता निष्कपट होती है और सांसारिक मौजों की प्रसन्नता चिंता और क्षोभ से भरी हुई होती है । आगे पीछे जिसके चिंता और क्षोभ भरे हुए हैं ऐसी सांसारिक मौजों की प्रसन्नता है । तो प्रभु का दर्शन भव्यजीव रूपी कमलों को प्रफुल्लित कर देता है, वह एक अद्भुत चमत्कार है ।