वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2159
From जैनकोष
तदार्हत्त्वं परिप्राप्य स देव: सर्वग: शिव: ।
जायतेऽखिलकमौघजरामरणवर्जित: ।।2159।।
प्रभु की अर्हता―तब वे सर्वगत और शिव ऐसे भगवान अरहंत अवस्था को प्राप्त कर के संपूर्ण कर्मों के समूह और जन्म जरा मरण से रहित हो जाते हैं । अरहंतपना पाकर ये सिद्धपरमेष्ठी हो जाते हैं । गुणस्थान में क्या है? गुणों का विकास है । चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व का विकास हुआ है और यहाँ से समझिये कि उसका मोक्षमार्ग शुरू हो गया । सच्चा ज्ञान हो जाय तो फिर घबड़ाहट नहीं रहती । चाहे घर गृहस्थी में रहकर किस ही प्रकार की परिस्थितियाँ आयें पर ज्ञानबल के प्रसाद से उसे रंच भी आकुलता नहीं होती । सारी बातें सहनी तो खुद को ही पड़ेगी, दूसरे लोग तो दूसरों के दुःख को देखकर हँसेंगे, कोई किसी दूसरे के दुख को मिटा न देगा । आये कोई घटना दुःख की तो उसको अपने ही दिल में ही रखकर सहन कर लीजिए । उस समय यह ख्याल रखिये कि आया है यह दुःख का अवसर तो इस समय हमारी कोई मदद न कर देगा, इस प्रकार का विवेक रहेगा तो एक समय वह आयगा कि वे सारे दुःख मिट जायेंगे । यदि दुःख के समग्र में भी विवेक सही बनाये रहे तो वे सारे दुःख भी हँस-खेलकर समतापूर्वक सहन कर लिए जाते हैं । तो सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई चतुर्थ गुणस्थान में, उसके बाद फिर कषायों पर विजय होती है, चारित्र में विकास होता है, समस्त कषायें नष्ट हो जाती हैं । 12वें गुणस्थान में पहुंचने पर अरहंत भगवान हो जाते हैं, सो वे रहते हैं जब तक उनकी आयु है । आयु समाप्त होने पर सब कर्म एक साथ नष्ट होते हैं, शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी हो जाते हैं ।