वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2158
From जैनकोष
तन्नामग्रहणादेव नि:शेषा जन्मजा रुज: ।
अप्यनादिसमुद्भता भव्यानां यांति लाघवम् ।।2158।।
प्रभु नाम स्मरण की महिमा―जिन भगवान के नाम लेने मात्र से ही जीवो के अनादिकाल से उत्पन्न हुए जन्ममरण रूपी रोग भी क्षीण हो जाते हैं ऐसे वे भगवान प्रभु शुक्लध्यान के प्रसाद से हुए । हे प्रभो, आपके स्तवन की बात तो दूर रही, आपका नाम लेने मात्र से भी लोगों के पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । सूर्य का प्रकाश तो तब आयगा जब सूर्य उदित हो चुके । पर सूर्य का प्रताप तो देखो कि पहिले ही याने जब सूर्य का उदय काल आता है तो इससे दो घड़ी पहिले अंधकार विलीन हो जाता है, तो प्रभु नाम स्मरण, आत्मगुण स्मरण इसके सिवाय हम और आप कौनसा वैभव पायेंगे? लोक में वैभव है वह तो असार है, रहा तो क्या, न रहा तो क्या? उससे तो ज्यादा से ज्यादा ऐसा मौज मान लिया कि हजार लाख व्यक्तियों के बीच कुछ महिमा बढ़ गई । लोग ऊँचा आसन देंगे, समारोहों में अध्यक्ष बना देंगे, लोग तारीफ करेंगे, पर यह सब है क्या? एक स्वप्न की जैसी बात है ।
मोहनिद्रा अस्त करने का स्मरण―भैया ! अपनी जिंदगी से ही विचार लो, कितने ही पुरुष यहाँ ऐसे बैठे हैं जिनके दादा, पिता, माँ आदि नहीं रहे, बहुत से इष्ट जनों का वियोग हो गया । ये सभी गोद में लेकर बड़े प्रेम से खिलाते रहे, कभी जमीन पर पैर न रखने देते थे, सभी के सभी इसे बड़े लाड़-प्यार से रखते थे, पर आज वे सब समागम कहाँ गए? आज तो लगता होगा कि वे सब स्वप्न जैसी बातें थीं । स्वप्न में तो दत्त रहना संभव है, पर मोह की नींद में चेत रहना संभव नहीं है । यह मोह का स्वप्न नींद के स्वप्न से भी बदतर है । कभी स्वप्न ऐसा आया होगा कि कोई खोटा प्रसंग आने को हो और बड़ा विवाद हो जाय स्वप्न में ही, कहीं कोई जबरदस्ती करे, किसी रागी देव के पास ले जाय कि तुम इसे नमस्कार करो, ऐसा स्वप्न दिखा और आप वहाँ से हट जाये, तकलीफ पसंद करें, ऐसी भी दृढ़ता स्वप्न में हो सकती है, पर मोह की नींद में तो जहाँ इष्ट राग है, अनिष्ट द्वेष है, वहाँ आत्मा का चेत नहीं रहता । तो इस स्वप्नमयी दुनिया में अपना सारा जीवन न्यौछावर कर देना यह कहाँ का विवेक है? तो ऐसा सोचना चाहिए कि जब हम सर्वज्ञदेव की शरण में आये हैं तो उनके बताये हुए मार्ग को अपनायें और उस ही प्रकार की अपनी दृष्टि रखें ।
माया के गर्व की व्यर्थता―एक कोई सेठ था, उसकी दूकान के सामने से रोज-रोज एक साधु निकला करता था । साधु कहे राम-राम तो वह सेठ कुछ बोलता ही न था । वह सेठ अपने रोजिगार में इतना फंसा रहता था कि उसे रामराम कहने की भी फुरसत न थी । तो साधु ने सोचा कि इस सेठ को कुछ मजा चखाना चाहिए । सो वह सेठ रोज-रोज एक नदी में नहाने जाता था, एक घंटे में नहाकर आता था । तो उस साधु ने क्या किया कि उस सेठ का ही जैसा रूप बनाकर सेठ से पहिले ही उसके द्वार पर आ गया, फिर घर के भीतर बैठ गया ।अब बाद में सेठ आया, तो पहरेदार उसे हटाने लगे कि तू यहाँ कौन बहुरूपिया बनकर आ गया, यहाँ से चल । तो वह सेठ बोला―अरे यह हमारा ही तो घर है, तुम हमारे ही तो पहरेदार हो । आखिर बाहर ही पड़ा रहा सेठ । सेठ ने उस साधु पर मुकदमा दायर कर दिया । वह सेठ वहीं द्वार पर 5-7 दिन तक पड़ा रहा । साधु उसे थोड़ा बहुत खाने को भी दे-दे इसलिए कि कहीं यह मर न जाय । आखिर अदालत में जब बयान हुए तो जज ने पूछा सेठ से कि इस मकान के बनवाने में तुमने कितना खर्च किया था? सो शायद कोई ठीक-ठीक रुपया? आना पाई में हिसाब नहीं दे सकता । वह सेठ कोई उस समय उत्तर न दे सका और साधु ने अपने ज्ञानबल से सोचकर बता दिया कि इतने रुपये इतने आने और इतने पाई खर्च हुए थे इस मकान के बनवाने में । आखिर निर्णय यही हुआ कि यह मकान इसका (साधु का) है । अब क्या था? उस सेठ को मजा चखा ही दिया उस साधु ने । एक दिन सेठ बाहर ही बैठा था, साधु निकला, पूछा―कहो सेठ जी तबीयत दुरुस्त है ना, उसने कुछ उत्तर न दिया । वह साधु स्वयं कहने लगा-देखो सेठ मैं रोज-रोज तुम्हारी दूकान के सामने से निकलता था, रामराम करता था पर तुम कुछ न बोलते थे, उसी से हमने तुम्हें मजा चखाया था । तो इस धनवैभव की कमाई में ही लोग जुटे हुए हैं, अपने आपके कल्याण करने की कुछ फुरसत ही नहीं है ।लोग तो इस धन वैभव के कमाने व उसके जोड़ने में ही अपनी चतुराई समझते हैं, पर यह उनकी भूल है । अरे यह वैभव न तो वर्तमान में ही शांति का कारण हो सकेगा और न भविष्य संबंधी कोई लाभ हो सकेगा । एक अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान कर लिया जाय तो यह ज्ञानसंस्कार आगे भी काम देगा और वर्तमान में भी वह शांतिपूर्वक रह सकेगा । तो जिस किसी भी प्रकार हो सके हमें शीघ्र ही इन संसार के संकटों से सदा के लिए छूटने का उद्यम कर लेना चाहिए । अपने कुटुंब जनों को, अन्य रिश्तेदारों को सभी को इस ही मार्ग में लगना चाहिए तभी आपका कुटुंब में रहना सार्थक है । अन्यथा संबंध तो पशु पक्षियों में भी होता है, उनके भी झुंड होते हैं, बच्चे होते हैं, और वे पशु भी अपने बच्चों से बड़ा प्यार करते हैं । तो सच्चा प्यार वही है परिजनों में, कुटुंब में कि सभी को धर्ममार्ग में लगाये, सभी को ज्ञानप्रकाश में पहुंचायें, यह है सच्चा प्रेम । और शेष तो सब स्वप्न जैसी बातें हैं । तो ये प्रभु ऐसे कल्याणरूपी विभव के अधिपति होते हैं । जिसके नाम के लेने मात्र से जन्मरूपी क्लेश दूर होते हैं ।