वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2161
From जैनकोष
मोहेन सह दुद्धर्षे हते घातिचतुष्टये ।
देवस्य व्यक्तिरूपेण शेषमास्ते चतुष्टयम् ।।2161।।
मोहक्षय के पश्चात् अवशिष्ट समस्त कर्मों का विनाश―जब केवली भगवान के चारघातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं तब अघातिया कर्म ही तो शेष रहे । घातिया कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय-इन सबमें मुखिया है मोहनीय । जैसे आजकल संसदों में विधायकों के नेता भी बना दिये जाते हैं । न रही सरकार खुद की तो जितने मेंबर रह गए हैं उनका एक नेता बना दिया । तो इन घातिया कर्मों का नेता कौन है? घातिया कर्मो का नेता है यह मोहनीय कर्म । सो सम्यक्त्व जब उत्पन्न होता तब चार अनंतानुबंधी और मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक् प्रकृति इन 7 प्रकृतियों का जब विनाश हुआ तब समझ लीजिये कि कर्मों का बंटा धार तो तभी हो गया । अब कब तक रहेंगे कर्म? फिर शेष चारित्र मोह की 20 प्रकृतियाँ 9वें गुणस्थान में समाप्त हुईं, संज्वलन लोभ 10वें गुणस्थान में समाप्त हुआ । तो मोहनीय कर्म की सेना सब खतम हो गई । जैसे कोई हरा वृक्ष है उसकी जड़े काट दी जाये तो वृक्ष के गिर जाने पर भी दो चार दिन उसकी पत्तियाँ हरी रहती हैं तो रहें हरी, पर वे प्रति समय मुरझाने के सम्मुख हैं, अब उनमें वह हरापन नहीं आने का है, इसी प्रकार इन कर्मों की जड़ मोहनीयकर्म जब कट गई तो फिर सारे कर्म मुरझाने के सम्मुख हैं, अब शेष 3 घातिया कर्म 12वे गुणस्थान में नष्ट होते हैं, । अब अघातिया रह गए । इनका काम क्या? जिनके कारण अभी शरीर बना है, शरीर में जीव बना है आदि । अकिंचित्कर ये बातें रह गयीं हैं अभी, तो उनके अब शेष अघातिया कर्म मात्र रह गये । तो वे अघातिया कर्म कैसे दूर होते हैं?