वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2165
From जैनकोष
अनंतवीर्यप्रथित प्रभावो दंडं कपाटं प्रतरं विधाय ।
स लोकमेनं समयैश्चतुर्भिर्निश्शेषमापूरयति क्रमेण ।।2165।।
अघातिया कर्मों की स्थिति समान होने के लिये समुद्धात―योगीश्वर पृथक्त्ववितर्कवीचार और एकत्ववितर्कअवीचार नामक दोनों शुक्ल ध्यानों के प्रसाद से क्रमश: मोहनीय व शेष घातिया कर्मों का नाश कर देते हैं । तब सयोगकेवली गुणस्थानवर्ती होते हें । वे अरहंत हैं, प्रभु हैं, उनके अब चार अघातिया कर्म शेष रह गये हैं, उनमें, यदि आयुकर्म की स्थिति विशेष अधिक है तो उन विशेष स्थिति वाले अघातिया कर्मों को आयु के बराबर करने के लिए समुद्धात होता है । इस समुद्धात का नाम केवलि समुद्धात है । केवलि समुद्धात में आत्मा के प्रदेश पहिले नीचे और फिर ऊपर जाते हैं । जैसे कि पद्मासन से विराजे हों तो शरीर की मोटाई से तीन गुना फैलकर जाते हैं और यदि खड्गासन से विराजे हों तो शरीर परिमाण की मोटाई लेकर नीचे से ऊपर तक भगवान आत्मा के प्रदेश फैल जाते हैं । यह हुआ उनका दंडसमुद्धात ।इसके पश्चात् अगल-बगल फैल जाते हैं तब होता है कपाटसमुद्धात । दंडसमुद्धात में भगवान के प्रदेशों का आकार डंडे की तरह लंबा रहा और कपाटसमुद्धात में किवाड़ की तरह उनके प्रदेश फैलते हैं । इसके पश्चात् तीसरे समय में आगे पीछे फैलते हैं, अब यहाँ तक उनके प्रदेश लोकालोक में सर्वत्र फैल गए, केवल वातवलय बचे इस लोक के चारों तरफ । जिन वातवलयों पर यह सर्व लोक सधा हुआ है उन वातवलयों में अभी अरहंत भगवान के प्रदेश नहीं फैले प्रतर समुद्धात में । लोकपूरण समुद्धात में प्रदेश वातवलयों में भी ठहर जाते हैं । उस समय लोक के एक-एक प्रदेश पर आत्मा का एक-एक प्रदेश रह जाता है, इसे कहते हैं एकत्व वर्गणा होना । लोकपूरण समुद्धात में आत्मा के प्रदेश पूर्ण लोकाकाश में फैल गये, कहीं किसी भी जगह दो प्रदेश न रहे, सर्वत्र एक प्रदेश रहकर वह आत्मा फैल जाता है । इसके पश्चात् 5वें समय में प्रतर जैसी स्थिति हो जाती है । फिर छठे समय में कपाट जैसी स्थिति, 7वें समय में दंड जैसी स्थिति रह जाती है और 8 वें समय में शरीर में प्रवेश हो जाता है । इन 8 समयों की प्रक्रिया से शेष बढ़े हुए तीन कर्म आयुकर्म के बराबर हो जाते हैं ।
पिंडलोक का आधार वातवलय―इस लोक का आधार क्या है, यह लोक किस पर टिका हुआ है? इस संबंध में कोई लोग कुछ कहते हैं, कोई कुछ । कोई लोग तो एक बारह अवतार हुआ उस पर टिका बताते हैं, कोई लोग कहते कि कीली पर दुनिया टिकी, कोई कहता कि शेषनाग के फन पर दुनिया टिकी, कोई लोग कहते कि इस लोक के चारों तरफ तीन प्रकार की विशिष्ट हवायें हैं और लोक के नीचे गहराई में और अधिक मोटाई में वह हवा है जिस पर यह लोक सधा हुआ है । यों अनेक मान्यतायें हैं । शेषनाग की बात तो बहुत प्रसिद्ध है, पर उसका सही अर्थ देखें । पहिले नाग शब्द में देखो तीन शब्द है―न, अ और ग । गच्छति इति अग: । जो चले सो ग, न गच्छति इति अग:, जो न चले सो अग, न अग: इति नाग:, जो न चलने वाला नहीं है उसे नाग कहते हैं अर्थात् हवा । और शेषनाग का अर्थ है जो शेष रही हवा है वह । तो लोक में सर्वत्र वायु भरी है, सो भीतर की समस्त वायु से बची हुई जो हवा है, विशिष्ट वातवलय है उसका नाम है शेषनाग । यों यह सब लोक उन वातवलयों के आधार पर है । प्रभु भगवान आत्मा के प्रदेश लोकपूरण अवस्था में, लोक के वातवलयों में भी फैल जाते हैं, और उस प्रकिया में क्या होता है कि जो अधिक स्थिति के अघातिया कर्म थे वे आयुकर्म के समान हो जाते हैं ।