वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2166
From जैनकोष
तदा स सर्वज्ञ: सार्व: सर्वज्ञ: सर्वतोमुख: ।
विश्वव्यापी विभुर्भर्त्ता विश्वमूर्तिमहेश्वरः ।।2166।।
लोकपूरणसमुद्धात में प्रभु की व्यापकता―जब केवली भगवान लोकपूरण समुद्धात में होते हैं अर्थात् लोक के समस्त प्रदेशों में पूर्ण रूप से फैल जाते हैं तो उस समय ये चार बातें-धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य, भगवान के प्रदेश और लोकालोक के प्रदेश, ये बराबर हो जाते हैं, तीन तो पहिले से ही उतने थे, अब आत्मा भी उतना हो गया । अब न कोई कम, न कोई ज्यादा रहा । इस लोकपूरण अवस्था में भगवान को इन शब्दों से कहा जाय तो वह अत्युक्ति है । वह प्रभु उस समय सर्वज्ञ हैं, सर्वत्र व्यापे हुए हैं । लोक का कोई प्रदेश ऐसा नहीं बचा जहाँ प्रभु न विराजे हों । उस समय वे सार्व हैं । सर्व के हितरूप हैं, सर्व के निकट मौजूद हैं, सर्व के जाननहार हैं, सर्वत्र उनकी गति है, सब ओर उनका सुख है । जो लोग प्रभु की ऐसी स्तुति करते हैं कि वे प्रभु सर्व ओर देखने वाले हैं, सर्व ओर उनकी आंखें हैं, सर्व ओर उनकी भुजायें हैं । वह अवस्था यही तो है प्रभु की । वे प्रभु उस समय विश्वव्यापी कहे जाते हैं, सर्वत्र व्यापक हैं । देखिये―प्रदेशों से तो वे लोकव्यापक हैं लेकिन ज्ञान से अब भी वे लोकालोकव्यापी हैं अर्थात् उनका ज्ञान लोक और अलोक सबका जाननहार है । उनके ज्ञान में लोकालोक समाया है । प्रदेश दृष्टि से अरहंत भगवान विश्वव्यापी हैं, विभु हैं, विश्वमूर्ति हैं, महेश्वर हैं । ऐसी फैलने की स्थिति केवल एक समय को होती है । एक समय कितना होता है? पलक शीघ्रता से जितने समय में गिरे और उठे उतने समय में अनगिनते समय हुआ करते हैं, उनमें से एक समय के लिए यह स्थिति हुई है प्रभु की । और उस फैलाव के कारण कर्म भी फैल गए । क्योंकि कर्मवर्गणाओं का और आत्मा का अभी एक क्षेत्रावगाह संबंध है । कर्म के फैलाने के लिए तो समुद्धात बना है । आत्मा को फैलाने की क्या जरूरत थी? होते हैं सब काम अपने आप सहज । कर्म फैल जायेंगे तो जैसे धोती को फैला दिया जाय तो शीघ्र ही सूख जाती है इसी प्रकार ये कर्म सारे विश्व भर में फैल गए तो ये सब कर्म सूख जाते हैं ।