वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 217
From जैनकोष
धर्मधर्मेति जल्पंति तत्त्वशून्या: कुदृष्टय:।
वस्तुत्त्वं न बुध्यंते तत्परीक्षाक्षमा: यत:।।217।।
तत्त्वपरीक्षा बिना धर्म धर्म की व्यर्थ जल्पना―सभी मनुष्य ऐसा कहते हैं कि धर्म से सब सुख मिलते हैं, और अपनी कल्पनाओं के अनुसार किसी भी बात में यह धर्म है, ऐसा मानकर धर्म धर्म की धुन भी बनाये रहते है किंतु धर्म के स्वरूप से अपरिचित जीव वास्तव में धर्म के स्वरूप को नहीं समझते। आज कितने मजहब हैं जिनकी भली प्रकार कथनी की जाय तो करीब 50, 60 संख्या में बनेंगे। और सभी लोग अपनी-अपनी बात करते हैं और दूसरों की काट करते हैं सभी के सभी एक दूसरे की काट कर दें फिर बतलावो कि धर्म क्या है? किसे मानें हम धर्म। तो धर्म धर्म ऐसा सभी लोग कहते हैं। यहाँ भी धर्म की बात यह है, पर इतने मर्म को जानने से अन्य-अन्य बातों में उलझ गए हैं। तत्त्व की बात होती है कुछ और फिर रूढ़ि चल-चलकर बात बन जाती है कुछ। तो जो तत्त्वशून्य हैं, विपरीत जिनकी दृष्टि है वे यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते। कोई एक ही बात तो अब नहीं रही। कोई कहते हैं कि कृष्ण ईश्वर हैं, कोई कहते हैं राम हैं। कोई कहते हैं खुदा हैं, कोई कहते हैं ईसा हैं, कोई किन्हीं को, कोई किन्हीं को बताते हैं और बताने के साथ ही साथ अपनी बात को भी सही कहते हैं और दूसरे की बात खंडित करते हैं। तब यह बतलावो कि आखिर निष्कर्ष क्या निकला?
स्वयं की मार्गणा से प्रभुस्वरूप में अविसंवाद―भैया ! यदि स्वयं के मार्ग से चलकर निर्णय करें तो निष्कर्ष निकले। किसी भी मजहब के लोग हों, उनसे अब आप यह पूछें कि जो कोई भी ईश्वर होगा उसमें ऐब होते हैं क्या? तो उनके ही मुख से कहलवा लो दोष तो नहीं होते। कोई नहीं कह सकता है कि भगवान में दोष होते हैं। तो यह अर्थ हुआ ना कि निर्दोष हुए, जो निर्दोष हो सो भगवान है। फिर एक बात और पूछना कि भगवान में ज्ञान गुण, आनंद गुण ये पूरे होते हैं कि अधूरे होते हैं। किसी से भी कहने जावो धर्मी यही कहेंगे कि पूरे होते है। और जिनके दोष न हों वे भगवान हैं तो दोष जरा भी न हों उसका नाम है वीतराग, निर्दोष। जिसमें जरा भी राग नहीं है उसका नाम है वीतराग, क्योंकि सभी दोषों का राजा है राग। सारे ऐब राग से उत्पन्न होते हैं। ईर्ष्या हो, झगडें हों, सारी बातें राग को उपजाती हैं। किसी चीज का राग है तो दूसरे से झगड़ा भी करे। किसी से राग है तो विवाद होगा, द्वेष करेगा। तो सब ऐबों की जड़ है राग। तो जिसमें दोष नहीं है उसका नाम है वीतराग। और जिसमें गुण पूरे विकास को प्राप्त हैं उसका नाम रख लो सर्वज्ञ, क्योंकि सब गुणों का राजा है ज्ञान। जो ज्ञान सबको जाने अर्थात् पूरा हो तो उसका अर्थ है कि पूरे गुण वाला है तो यह अर्थ निकला कि जो सर्वज्ञ हो और वीतराग हो वह ईश्वर है। इसमें किसी को बुरा न लगेगा। जिस चाहे मजहब वाले से बात कर लो। वह वीतराग और सर्वज्ञ की बात सुनकर खुश ही होगा और इसमें अपना गौरव समझेगा, हमारा ईश्वर भी वीतराग है, सर्वज्ञ है। अब वीतरागता और सर्वज्ञता का स्वरूप भले प्रकार से समझ में आ जाय तो उसकी धर्म की गुत्थी सब सुलझ जाय, पर ऐसा कौन है। जो भी ईश्वर मानते हैं, प्राय: करके उसकी कोई लीला बताते हैं, खेल बताते हैं गान, नृत्य बताते हैं पर उसका स्वरूप क्या है उस पर दृष्टि नहीं देते।
वस्तुस्वरूप की परीक्षा से धर्मस्वरूप का निर्णय―धर्म धर्म ऐसा सभी लोग कहते हैं, पर वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाने बिना सत्य परीक्षा कैसे होगी? वस्तुस्वरूप की परीक्षा हो तो धर्म की बात समझ सकते हैं। अब स्वरूप का तो ज्ञान नहीं और धर्म धर्म चिल्लाते हैं तो उससे कहीं धर्म का प्रभाव नहीं बनता। वस्तु स्वरूप की परीक्षा नय प्रमाण की विधि वाले शास्त्रों द्वारा ही हो सकती है। आज है कलयुग। पापों की ओर, अंधकार की ओर जाने का यह युग है। दृष्टि नहीं लोगों की अस ओर आती है, किंतु वस्तु का स्वरूप सत्ता का स्वरूप जिस प्रकार जिन आगम में बताया है उस पद्धति से कोई स्वरूप खोज करे तो उसे वस्तु का स्वरूप मिल सकता है। तो धर्म क्या है, उस धर्म का स्वरूप कहते हैं।