वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 218
From जैनकोष
तितिक्षा मार्दवं शौचमार्जवं सत्यसंयमौ।
ब्रह्मचर्य तपस्त्यागाकिंचन्यं धर्म उच्यते।।218।।
स्वभावदृष्टि से ही तत्त्व का सत्य निर्णय―धर्म इन 10 रूपों में परख लिया जाता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य। दूसरे का अपराध क्षमा कर देना सो क्षमा गुण है। क्षमा धर्म है कि नहीं? क्रोध करना धर्म नहीं है, अधर्म है और क्षमा करना तो धर्म है। धर्म की बात यदि कोई आत्मदृष्टि से विचारें तो जरा-जरासी बात में वह निर्णय कर सकता है और आत्मा की दृष्टि न करके केवल बाहरी बातों में ही दृष्टि लगाये, फलाने गुरु हैं उन्हें पूज लें, फलाने देव हैं इन्हें पूज लें तो वह धर्म के स्वरूप को जान नहीं सकता। हालांकि धर्म पालन के लिए गुरु पूजा भी चाहिए, देव पूजा भी चाहिए, मगर वे सहायक हैं, वै सीधे धर्म नहीं पैदा करते। धर्म तो हम अपने आत्मा पर जोर दें और अपने विचार में चलें तो होता है। वह हमारी कुछ मदद जरूर करते हैं अर्थात् हम धर्म पर चलना चाहें तो गुरु सत्संग और देव पूजा ये सहायक बनते हैं। पर हम तो टस से मस न हों, हम भी अपनी खोटी आदत से बाज न आयें, केवल एक पूजा भक्ति से हम अपना धर्म बना लें तो नहीं बन सकता है। तो जो कुछ भी अपने आत्मा की दृष्टि बनाकर निर्णय करे तो उसे निर्णय झट हो जाय।
क्षमा की पहिचान―क्षमा करना धर्म है। क्षमा करने से कितने ही और गुण पैदा हो जाते हैं। प्रथम तो क्षमा तब की जब उसने दूसरे जीव का महत्त्व सोचा। हो गया अपराध कर्मों के उदय से, पर यह जीव तो शुद्ध है। इस जीव ने कोई अपराध नहीं किया। जीव के परिणमन में अपराध आ गया। यह जीव तो ब्रह्मस्वरूप हैं ऐसी दृष्टि जगे तब अच्छे विचारों से क्षमा की जा सकती है और ऐसी दृष्टि जगे बिना क्षमा करने वाला भी क्षमा-क्षमा कहता जायेगा और क्षमा नहीं कर सकता है। बहुत से लोग अपनी सभ्यता जताने के कारण कह देते हैं क्षमा, पर क्षमा करते नहीं हैं। क्षमा न करने का कारण क्या है कि जीव ने अपना और दूसरे जीव का महत्त्व अभी नहीं आँका। यदि जीव का महत्त्व, जीव का स्वरूप समझ में आये तो यह दिल से माफ कर देगा। इसने अपराध नहीं किया, कर्मों का उदय था इसलिए ऐसा कसूर बन गया। जीव तो वही शुद्ध है। तो क्षमा धर्म यों आसानी से नहीं आ जाता। उसमें अपनी योग्यता बनानी पड़ती है। तब क्षमा धर्म आता है।
मार्दव धर्म विशिष्टता―इसी तरह मार्दव धर्म है नम्रता करना। एक तो लखनऊशाही बोली बोलकर नम्रता बताना और एक दिल से नम्र बनना, इन दोनों में बड़ा अंतर है। आजकल की बोली में कुछ ऐसे उर्दू शब्द भरे हैं जिन्हें सुनकर लोग वाह-वाह हो गए हैं। यह तो बड़ा नम्र है, अपने को बड़ा तुच्छ मानता है। पर नम्रता नहीं है, अपनी शान बताने के लिये वे नम्रता के शब्द बोले गए हैं। नम्रता कब हो सकती है? जब हम दूसरे जीव को भी महान समझे तब नम्रता हो सकती है। दूसरा जीव भी महान है यह हम कब जान सकते हैं जब हमें जीव का स्वरूप मालूम हो। सब जीवों का एक ज्ञानानंद स्वरूप है। सभी प्रभु हैं, सबमें प्रभुता है, ऐश्वर्य है, सभी के सभी ज्ञानानंदस्वरूप हैं, ऐसी बात समझ में आये तो नम्रता की बात जगेगी। और जब तक यह जानते रहेंगे कि ये लोग तो न कुछ हैं, समझदार नहीं है। मैं ही इनमें समझदार हूँ ऐसी बात कोई समझता रहे इस नम्रता के साथ-साथ और नम्रता आ जाय तो क्या यह संभव है? तो नम्रता करना धर्म है। इस नम्रता के साथ-साथ और भी तात्विक बातें आ जाती हैं।
आर्जव धर्म का वैशिष्ट्य―तीसरा धर्म बताया आर्जव, सरलता। छल कपट न करना। छल कपट न करे, सरलता आये, यह बात तभी बन सकती है जब यह निर्णय हो कि यह मैं आत्मा इस शरीर से भी न्यारा केवल एक चैतन्य स्वरूप हूँ। उससे मेरे में न कुछ वैभव आ सकता और न मेरे साथ वह वैभव चिपका हुआ है। तो जब यह विदित हो कि मैं सबसे न्यारा केवल चैतन्य स्वरूप हूँ, इस मेरे का यहाँ कुछ नहीं है, न मेरे कुछ साथ चिपका है, न ले जायेंगे। यह तो मैं सबसे न्यारा अकेला हूँ, यह बात चित्त में आयगी, यह स्वरूप समझ में आयगा तो छल कपट छूट सकते हैं और जहाँ यह पर्याय बुद्धि रखेगा वहाँ इंद्रिय के साधनों के लिए छल कपट करेगा। तो सरलता करना धर्म है।
निर्लोभता ही धर्म है―इससे पूर्व श्लोक में यह बताया था कि सभी लोग धर्म धर्म चिल्लाते हैं, पर धर्म का मर्म क्या है? इस बात से जब तक शून्य हैं तब तक धर्म क्या करेंगे? बाहरी जितनी बातें हैं ये सब एक साधन मात्र हैं, सीधे धर्म नहीं हैं। सीधे रूप से धर्म तो हम आपका निर्मल परिणाम है, आत्मा की शुद्ध परिणति है। तो आत्मा की दृष्टि न बनाये और फिर बाहर में जिस किसी भी परिस्थिति से धर्म धर्म समझकर उसकी ओर बहे तो मर्म कहाँ पाया? देखो धर्म आपका आपमें हैं, आपका धर्म आपमें मिल जायगा और उस धर्म की प्राप्ति से आप संतुष्ट हो जायेंगे। धर्म निर्लोभता है। लोभ को पाप बताया है। लोभ न रहे उसे धर्म कहा है। लोभ न रहे ऐसे धर्म की स्थिति हममें तभी आ सकती है जब यह समझ में आये कि यहाँ अपना कुछ नहीं है, देह तक भी जब अपना नहीं तो अन्य पदार्थ क्या अपने हो सकते हैं। क्या परिजन, क्या वैभव, क्या मित्रजन कुछ भी अपनी वस्तु नहीं है। यह बात एक अनुभव में उतर जाय तो उसकी इन वैभवों से प्रीति हट सकती है और निर्लोभता जग सकती है। निर्लोभ करना धर्म है और लोभ करना अधर्म है।
सत् का निर्णय ही परमसत्य―5 वीं बात बतायी गई है सत्य। सभी लोग कहते हैं सत्यमेव जयते। सत्य की ही विजय होती है। सत्य ही धर्म है, झूठ बोलना पाप है। पर सच ही बोला जाय सच पद्धति से रहा जाय ऐसा साहस जगने पर ही हो सकता है, मिथ्यात्व दशा में नहीं हो सकता है। मोह तो हममें बस रहा हो दुनिया का और हम सच्चाई की डींग मारें तो सच्चाई कैसे प्रकट हो सकती है? सच्चाई की बात सही ढंग से उसमें ही प्रकट हो सकती है जिसने अपने स्वरूप का ठीक निर्णय किया है, जगत के समस्त पदार्थों का ठीक स्वरूप जाना है, अपने को सबसे न्यारा मात्र चैतन्यस्वरूप माना है उसमें ही यह साहस जग सकता है कि हम तो सच्चाई के साथ रहेंगे और सत्य ही बोलेंगे।
छठवाँ धर्म बताया है संयम―जैसा चाहे खाना जब चाहे खाना, मांस मदिरा का भी विवेक नहीं और जैसी चाहे प्रवृत्ति करना, यह धर्म नहीं है, इससे किसी का पूरा तो न होगा। किसी भी बात का ख्याल न रखना और मौज से अपने विषयों का सुख लूटने के लिए असंयम रूप प्रवृत्ति रखना, किसी भी बात पर नियंत्रण न रखना ऐसा जो आचरण है वह आचरण जीव का हितकारी नहीं है, पापरूप है। और जिसने अपने मन को मार लिया, अपने को संयम में ढाल लिया, इंद्रियाँ संयत हैं, मन संयत है तो इस प्रकार से जो अपने आपको संयम में रखता है तो यह संयम की स्थिति इस जीव को शांति पहुँचाती है और तृष्णा करे तो कहीं भी शांत नहीं हो पाता। जिसने कुछ विषयों के भोग मिले उससे क्या यह कभी तृप्त हुआ है कि हमने इतना आज भोग लिया, अब भोगने की जरूरत नहीं रही। किसी भी विषयभोगों में संतोष किसी को नहीं होता। जैसे बहुत बढ़िया मिठाई आज खा लिया तो ऐसा निर्णय तो कोई नहीं कर पाता कि कितना बढ़िया स्वाद है? अब हमें जरूरत न रहेगी। इसके समझने की या मिठाई को खाने में ऐसा संतोष कौन करता है। किसी भी विषय के भोग में जिस काल में भोग की इच्छा है उस काल तो उसका यह ख्याल बना कि यह भोग में आ जाय फिर तो हम सुखी हो जायेंगे, फिर हमें जरूरत न रहेगी। लेकिन भोगने के बाद फिर उसी की आकांक्षा होती है। तो असंयम की प्रवृत्ति में किसी ने शांति नहीं पायी। तो अपने मन को संयत रखना, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना यह धर्म है और असंयम से रहना अधर्म है।
इच्छानिरोध ही परमतप―7 वां धर्म है तप, इच्छा का निरोध करना तप है। अब समझिये कि सारे जगत के सिर पर यह इच्छा नाच रही है और सारा जगत इस इच्छा का दास बन रहा है। इस इच्छा को त्याग सके इसके लिए तो बड़ा साहस चाहिए। इच्छा न करे ऐसा साहस न कर सकने वाला ज्ञानी पुरुष ही हो सकता है। जिसे अपने स्वरूप के जौहर का पता है, अपने आपमें जो गुण हैं उसकी महिमा का पता है उसमें ही यह साहस बनेगा कि जगत के किसी भी बाहरी पदार्थ की इच्छा न करे। इच्छा का निरोध करना तप है और जो तप है सो धर्म है। यथा शक्ति इच्छा का निरोध करते हुए अपने धर्म की ओर बढ़ना चाहिए।
त्याग का वैशिष्ट्य―8 वां धर्म है त्याग धर्म। जो ग्रहण किया है वे सब परभाव हैं, परतत्त्व हैं, पर पदार्थ हैं, वे सब काल्पनिक हैं उनका त्याग करिये और अपने आपमें जो सहज बात है, ज्ञान है, आनंद है उसकी प्राप्ति में लगिये, उसकी दृष्टि रखिये। त्याग करना धर्म है। जो भी जीव संसार से पार हुए हैं वे त्याग के प्रताप से ही हुए हैं। संग्रह करके कोई मुक्त न हो सकेगा। त्याग किया तभी महात्मा बने और तभी परमात्मा हुए।
आकिंचन्य का स्वरूप―9 वां धर्म है आकिंचन्य। अपने आपको ऐसी समझ में रखना कि मेरा कहीं कुछ नहीं है। मेरा जो कुछ है वह सर्वस्व यह ही मुझमें है, मेरा स्वरूप ही मेरा है, इसके सिवाय अन्य कुछ मेरा नहीं है, इस तरह आकिंचन्य का परिणाम रखना धर्म है और मोह बनाना, यह सब मेरा है इस तरह के अंधकार में रहना यह अधर्म है। तो आकिंचन्य धर्म है।
स्वरूप में रमण की ब्रह्मचर्य―आखिरी बात बताई है ब्रह्मचर्य। जिसका अर्थ है ब्रह्म मायने आत्मा उसमें चर्य मायने लीन हो जाना। अपने आत्मस्वरूप में मग्न हो जाना यही धर्म है। जहाँ राग, द्वेष, मोह आदि कुछ नहीं रहे उसका नाम धर्म है। इस तरह धर्म का कुछ विवरण जानना हो तो इन 10 प्रकार के अंगों में धर्म की बात समझ सकते हैं। इस पर यदि दृष्टि न हुई और धर्म के नाम पर बड़े विवाद, कलह, गालियां, क्या-क्या बातें बना ली तो वह धर्म नहीं है, धर्म तो वस्तु का स्वरूप है अपने आपका सही श्रद्धान, ज्ञान और आचरण करना, अपने कैवल्य का अनुभव करना यही धर्म है।