वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2175
From जैनकोष
विलयं वीतरागस्य पुनर्यांति त्रयोदश ।
चरमे समये सद्य: पर्यंते या व्यवस्थिता: ।।2175।।
अयोगकेवली के अंतसमय में अवशिष्ट समस्त प्रकृतियों का विनाश―फिर उस अयोग-केवली भगवान के अंतिम समय में शेष बची हुई तेरह प्रकृतियों का विलय हो जाता है । देखिये सब ही अरहंतों के तेरह प्रकृतियां अंत में नहीं रहतीं । किसी के बारह शेष होती हैं, किसी के तेरह । तीर्थंकर प्रकृति के उदय वाले जो तीर्थंकर हैं उनके तीर्थ प्रकृति होने से तेरह प्रकृतियां कही जाती हैं, जो तीर्थंकर तो नहीं हैं किंतु उत्कृष्ट मुनिराज होकर जिन्होंने कर्मों का विनाश किया है उनके बारह प्रकृतियों की सत्ता होती है । जिनके बारह प्रकृतियां हैं उनके बारह का विनाश होता है, जिनके तेरह प्रकृतियां हैं उनके तेरह का विनाश होता है । इस प्रकार वे समस्त कर्मों से रहित हो जाते हैं और उस ही क्षण उनका शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है और वे इस संसार से अनंतकाल के लिए विदा हो जाते हैं । उस समय विदाई देने के लिए देव देवेंद्र आते हैं मोक्ष कल्याणक मनाने के लिए । यहाँ भी कोई किसी अच्छे देश जा रहा हो, जहाँ कि सुख साधन और उत्कर्ष बहुत हो सकते हों तो ऐसे देश में भेजने के लिए विदाई के समय यहाँ कितने लोग उपस्थित होते हैं और कितना ठाठ से भेजते हैं । फिर भला बतावो―जो पुरुष इन सांसारिक विपदाओं से सदा के लिए हटकर आनंदमय मोक्ष अवस्था में जा रहा हो और वह हम आपके बीच बहुत बड़े परिचय में था गृहस्थावस्था में, मुनि अवस्था में, अरहंत अवस्था में, जिनके चरण रज को मस्तक पर चढ़ाकर हम अपना अहोभाग्य समझते थे, भला ऐसे प्रभु का मोक्ष कल्याणक मनाने के लिए कितने ठाठ और उत्साह मनाये जाते होंगे?