वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2174
From जैनकोष
तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् ।
समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगिपरमेष्ठिन: ।।2174।।
अयोगकेवली भगवान के समुच्छिन्नक्रिय शुक्लध्यान का आविर्भाव―भगवान अयोग-केवली परमेष्ठी के साक्षात् निर्मल समुच्छिन्नक्रिय नाम का चतुर्थ शुक्लध्यान उत्पन्न होता है ।उस शुक्लध्यान के प्रताप से 72 प्रकृतियों का नाश किया था । अब शीघ्र ही शेष तेरह प्रकृतियों का विनाश करके गतिरहित हो जायेंगे । जीवों में जो खोज की जाती है वह एक सपर्यायता के रूप से की जाती है । जैसे जीव 5 प्रकार के हैं―नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव और गतिरहित ।लेकिन यह पहिचानिये कि जिस पर ये 5 अवस्थायें बीतती हैं, वह स्वरूपत: है क्या? जो इन 5 अवस्थावों में एक ध्रुव तत्त्व है वह स्वरूप, उसकी पहिचान करने के लिए उसका परिचय और अनुभव करने के लिए ये समस्त ज्ञान बताये गए हैं । उसे कारणपरमात्मतत्व कहो, कारणसमयसार कहो, शुद्ध स्वरूप, चैतन्यभाव किन्हीं भी शब्दों से कहो―उसका ध्यान जिसने पाया, उसकी ज्योति जिसके प्रकट हुई है वह ही धन्य है, वह ही संसार संकटों से छूटकर सदा के लिए अनंत आनंदस्वरूप बना है । यहाँ चरम साधक अयोगकेवली भगवान के समुच्छिन्नक्रिय नामक शुक्लध्यान होना बताया जा रहा है । ध्यान तो क्या है, चित्त तो है नहीं न वे संज्ञी हैं, न असंज्ञी हैं, जिस स्थिति में कर्म झड़ते हैं वह स्थिति इस ध्यान में पाई जाती है । विशुद्ध ध्यान बने तो कर्म झड़ते हैं । तो कर्म झड़ने की बात सुनकर वहाँ की स्थिति का किसी विशेषण से नाम तो लिया जायगा। वह है समुच्छिन्नक्रिया । इसके बाद क्या होता है अयोगकेवली भगवान के सो सुनो ।