वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2179
From जैनकोष
अयोगी त्यक्तयोगत्वात्केवलोत्पादनिर्वृत: ।
साधितात्मस्वभावश्च परमेष्ठी परं प्रभु: ।।2179।।
अयोगी योगेश्वर की परमेष्ठिता―यह ज्ञानार्णव ग्रंथ ध्यान की मुख्यता से प्रतिपादन करता है । इस ग्रंथ की रचना शुभचंद्राचार्य ने भर्तृहरिभाई को संबोधने के लिए की । तो उस ध्यान विधि में चूंकि बारह भावनाओं का भाना अधिक ध्यान का साधक होता है, सो भावनाओं के वर्णन से इस ग्रंथ की शुरुवात की, और दिव्य उपदेश से अंत में ध्यान का वर्णन किया । यहाँ त्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान से आत्मा की क्या स्थिति बनती है, उसका वर्णन है । अब वे प्रभु शरीर के बंधन से भी दूर हैं, कर्मों से भी निराले हैं और रागादिक के लवलेश से भी दूर कुछ पहिले से हो गये हैं । जो मात्र पुछ है ज्ञानपुंज वही उनके प्रकट है । ऐसी परमशुद्धि को प्राप्त हुए वे भगवान समस्त गुणों की सिद्धि से विराजे हैं, जिनका दर्शन और ज्ञान अनंत है, परम शुद्ध है, वे योगरहित हैं और केवल जो कुछ आत्मा में स्वरूप है उस स्वरूप की ही वहाँ रचनायें हैं । यह संसार तो एक मोहियों का घर है । यहाँ रहने के अधिकारी मोहीजन हैं । मोह न रहा तो अधिकार छिन गया, अब तुम जावो, तुम अब इस संसार में रहने के काबिल नहीं रहे । जब तक तुम मोह करते थे तब तक ही तुम इस संसार में रहने के काबिल थे । तो वे प्रभु अब सब प्रकार के मोहो से दूर हो गए, अत्यंत शुद्ध हो गए, केवल रह गए, जो थे सो ही रह गए । यही स्थिति अत्यंत शुद्ध और अनंत आनंदमय है । अत: ये सिद्ध प्रभु संसार के संकटों से छूटने की इच्छा करने वाले योगीश्वरों के ध्येय हैं और आदर्श हैं ।