वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2181
From जैनकोष
अवरोधविनिर्मुक्तं लोकाग्रं समये प्रभु: ।
धर्माभावे ततोऽप्यूर्ध्वगमनं नानुमीयते ।।2181।।
अयोगकेवलित्व के अनंतर प्रथम समय में ही निर्वाणभूमि से निर्वाणक्षेत्र में गमन―जब सर्व प्रकार के बंधन जीव के कट जाते हैं तो इसका कोई विरोध करने वाला नहीं रहा फिर यह अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव से एकदम लोक के अग्रभाग तक पहुंचता है, आगे नहीं पहुंचता । लोक से बाहर न पहुंचने का एक हेतु है कि जहाँ तक लोक है, जहाँ तक गति का हेतुभूत धर्मास्तिकाय है वहाँ तक गमन हुआ है । ये प्रभु लोक के अग्रभाग में ठहर गए, जितने भी सिद्ध हुए जहाँ से हुए वही से सीधे लोक में विराजमान हैं, उनके मोड़े वाली गति नहीं होती । मोड़े की जरूरत भी नहीं । 45 लाख योजन प्रमाण यह मनुष्य लोक है । यहाँ से जिस जगह से मुक्त होंगे उसके सीध में लोक के अग्रभाग में वे अवस्थित हो जायेंगे । सिद्ध लोक भी 45 लाख योजन प्रमाण है । इस मनुष्य लोक में कोई भी स्थान ऐसा नहीं मिलेगा जहाँ से अनेक सिद्ध न हुए हों । जिस स्थानपर हम आप अभी बैठे हुए हैं वहाँ से भी अनेक सिद्ध हुए ।तब फिर यह निर्वाण क्षेत्र हुआ । इसकी लालसा कौन करे? यहाँ हम आप रहते हैं कहाँ ठहरें, कहाँ सोये, कहाँ शौच जायें, आखिर सब यहीं तो करेंगे । इसकी महत्ता कौन जानता है? वे देव और देवेंद्र चाहते हैं कि मैं इस मनुष्य लोक में जन्म लूँ जहाँ निर्वाण क्षेत्र है । यहाँ का एक-एक प्रदेश एक-एक जर्रा-जर्रा समझिये यह निर्वाण भूमि है जहाँ हम आप विराज रहे हैं । तो ये प्रभु लोक के अग्रभाग में पहुंचे हैं ऊर्ध्वगमन करके ।