वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2180
From जैनकोष
लघुपंचाक्षरोच्चारकालं स्थित्वा ततः परम् ।
स स्वभावाद्वजव्यूर्ध्वं शुद्धात्मा वीतबंधन: ।।2180।।
अयोगकेवली का अतिशीघ्र लोकाग्रगमन―अब ये अयोगकेवली भगवान एक छोटे अंतर्मुहूर्त में अयोगकेवली गुणस्थान में रहकर मुक्त हो रहे हैं―लघु, जो 5 अक्षर हैं अ इ उ लृ इन अक्षरों के शीघ्र बोलने में जितना समय लगता है उतने ही समय इस अयोगकेवली गुणस्थान में रहकर ये स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करते हैं क्योंकि इनके सब प्रकार का बंधन दूर हो गया । जैसे किसी तुंबी में राख भर दी जाय और उसे नदी में डाल दिया जाय तो तुंबी नीचे बैठती है । जैसे उसकी राख गल जाय, बिल्कुल अलग हो जाय तो वह तुंबी स्वभाव से ही ऊपर आ जाती है, इसी प्रकार जब तक इस जीव में शरीर विकारों का मैल भरा है, भार लदा है, बंधन पड़ा है तब तक यह जीव इस संसार में रहता है, और जब ये सब दूर हों, ये भार ये मूल ये राख गल जायें तो निर्भार होकर यह जीव ऊर्ध्वगमन करता है । कुछ लोगों का ऐसा ख्याल है कि यह जीव मरता है तो एक बार तो वह ऊपर जाता ही है, बाद में जहाँ जाता हो, चाहे नीचे जाय अथवा किसी भी दिशा विदिशा में जाय । तो भाई ऐसा नियम नहीं है, ऐसी बात नहीं है । यदि जीव को मरकर ऊपर जन्म लेना है स्वर्गादिक में किसी भी जगह तो यह ऊपर जायगा और यदि नीचे ही जन्म लेना है तो सीधा नीचे चला जायगा ।कर्मभार से सहित है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव की बात उसमें प्रकट नहीं हुई है । कदाचित् यह ऊपर भी जाता है संसार अवस्था में तो वह स्वभाव की बात नहीं है । वह भी एक कर्मों की प्रेरणा है सो जाता है ऊपर । किंतु, जब जीव सर्व बंधनों से रहित हो जाता है तब इसका ऊर्ध्वगमन स्वभाव विकसित होता है, कोई बाधा नहीं आती है और यह ऊपर लोक में चला जाता है और यहाँ तक लोक है वहाँ तक यह एक समय में पहुंच जाता है।