वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2183
From जैनकोष
तौ लोकगमनांतस्थौ ततो लोके गतिस्थिती ।
अर्थानां न तु लोकांतमतिक्रम्य प्रवर्त्तते ।।2183।।
पदार्थो की लोकानतिक्रमणता―कर्म के बंधन में फंसा हुआ यह जीव जब कर्मों से रहित होता है तो यह ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण ऊपर ही चला जाता है । कुछ लोग तो ऐसा मानते हैं कि वे ऊपर चले ही जा रहे हैं अब तक और अनंत काल तक चलते जायेंगे, किंतु जैन शासन के अनुसार यह उपदेश है कि वे प्रभु एक ही समय में एकदम लोक के अंत तक पहुंच जाते हैं, उसके आगे क्यों नहीं गमन होता कि लोक इतना ही है । लोक से बाहर केवल आकाश ही आकाश है, जीव पुद्गल आदिक अन्य द्रव्य नहीं हैं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये लोक पर्यंत ही हैं, इस कारण पदार्थो की गति और स्थिति लोक में ही होती है, लोक का उल्लंघन कर के नहीं होती ।