वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2196
From जैनकोष
संतृप्त: सर्वदैवास्ते देवस्त्रैलोक्यमूर्द्धनि ।
नोपमेयं सुखादीनां विद्यते परमेष्ठिन: ।।2196।।
संतोष में वैभवशालिता―ये सिद्ध भगवान् संतृप्त हैं, अपने आप में संतुष्ट हैं । असंतोष ही दरिद्रता है, संतोष ही अमीरी है । नहीं तो आप लोग कमेटी कर के निर्णय कर के ही बतावो कि कितना धन प्राप्त हो जाय तो अमीर कहलायगा । आप लोग इसका कोई निर्णय नहीं दे सकते । तो वास्तव में जो संतुष्ट हैं वे ही अमीर हैं । बुंदेलखंड के एक राज्य में राजा के मर जाने पर राजमाता राज्य करती थी । उसके एक पुत्र था । उस पुत्र का चित्त बड़ा उदार था । बहुत-बहुत धन का दान करता था जो उसे मिल जाय । वह राजमाता उस लड़के की इस उदारता व अच्छी भावनाओं के कारण बहुत प्रसन्न थी । एक बार उस राजमाता ने कहा―बेटे यह जो सामने पहाड़ खड़ा है इतना धन यदि तुम्हारे सामने रख दिया जाय तो तुम कितने दिनों में दान कर दोगे? तो वह बालक बोला―माँ, मैं तो एक मिनट में ही दान कर दूँगा, पर उठाने वाले चाहे कितने ही दिनों में उठायें । तो वास्तव में जो संतुष्ट है वह परमधनी है और: जो असंतुष्ट है वह अति निर्धन है ।
आत्मरक्षार्थ विपदाओं के स्वागत का अनुरोध―भैया ! यहाँ किसकी बात सुनते हो, किसके बहकावे में आते हो? यहाँ किसके लिए इतनी अधिक धन के पीछे होड़ लगाई जा रही है? अरे उदय के अनुसार अगर आता है धन तो आये, उसमें व्यवस्था बना लेंगे । धनी होने के लिए, अमीरी का सुख भोगने के लिए यह मानवजीवन नहीं पाया, किंतु तत्वज्ञान पाकर अपने आत्मा में बसे हुए परमात्मप्रभु का दर्शन कर करके पवित्र बनने के लिए हमने यह मनुष्यजीवन पाया है । कैसी भी स्थितियां आयें, विचार करें कि हे विपदावों, तुम तो हमारा हित करने वाली हो, जितनी आ सको आवो । अरे इन राग की नींद में सोये हुए पुरुषों को जगाने वाली आप ही तो हो । जिस क्षेत्र में विपदायें नहीं होतीं उस क्षेत्र से मुक्ति नहीं होती । देवलोक में जहाँ कोई विपदा नहीं, खाने पीने का संकट नहीं, रोजिगार करना पड़ता नहीं, बस खेल-खेल में ही सारा समय व्यतीत होता है, तो क्या वहाँ से किसी को मुक्त होते सुना है? आगम में देखा है भोगभूमि के क्षेत्र में कोई विपदा नहीं । जुगलिया पैदा हुए, वे ही पुरुष स्त्री बन गए, जिंदगीभर सुख में रमे, अंत समय में गर्भ रहता, बच्चा बच्ची दोनों साथ ही पैदा हुए और मां बाप तुरंत मर गए । तो वहां काहे का दुःख? दुःख तो उन्हें तब हो जब वे उन बच्चा बच्ची का मुख देख ले । तो विपदायें आती हैं तो आये ।जो निर्वाण हजारों वर्ष तक तप करने पर प्राप्त हो सकता है वह निर्वाण किसी उपसर्ग के आने पर अंतर्मुहूर्त में ही प्राप्त हो सकता है । गजकुमार से बहुत से लोगों को हे विपदा ! तूने मुक्ति में पहुंचाया । तेरी आशा करूँ तो मुझे कुछ हाथ आ सकता है, पर संपत्ति की आशा करूँ तो केवल जीवन खोना है, हाथ कुछ नहीं आता है । विपदावों से डर मान लिया तो जीवन कायर बन गया, कुछ कर ही नहीं सकते । विपदावों से क्या घबड़ाना । रामलक्ष्मण सीता घर छोड़कर वन में रहे तो उन्होंने क्या विपदा मानी? यहाँ तो थोड़ी सी हानि हो जाय या लाभ में कमी आ जाय तो लोग हैरानी मानते हैं । इतना साहस बनावो कि हम तो जो भी स्थिति आयगी उसी में खुश रहेंगे । धर्म के लिए जीवे । दरिद्रता आये तो आये, अपने बच्चों को, स्त्री को सबको धर्म की बातें सुनाकर, जीवन का मूल लक्ष्य बताकर, उनके दुःख में सहानुभूति दिखाकर उन्हें तृप्त कर लें । वे तो धर्म के रंग में रंग जायेंगे । क्या यहाँ कष्ट है? जो अपने आप में संतृप्त हो वही धनी है ।
सहज ज्ञान की प्रियतमता―प्रभु सर्व प्रकार अपने आप में तृप्त रहा करते हैं । वे तृष्णारहित हैं, लोक के शिखर पर सदा विराजमान हैं । अब वे यहाँ से कभी चिगेंगे नहीं ।इस संसार में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जिसकी उपमा भगवान के गुणों के लिए दी जाय, भगवान के आनंद के लिए दी जाय । जीव की आदत रहती है कि जो वस्तु अधिक प्रिय हो उसको ही हृदय में बसाये । तो बतावो सबसे अधिक प्रिय क्या है? कोई एक बात बैठती ही नहीं है । जब बच्चा है तब मां की गोद प्यारी है । जब बढ़कर कुछ बड़ा हुआ तो खेलखिलौने प्रिय हो गए, कुछ और बड़े हुए तो शिक्षा प्रिय हो गई, फिर डिग्री प्रिय हो गई, फिर स्त्री पुत्रादि प्रिय हो गए, धन प्रिय हो गया । अब एक घटना घटती है―वह किसी दफ्तर में है, खबर पहुंची कि घर में आग लग गई । वह झट घर पहुंचकर सारा सामान, सारे बच्चे आदि को निकलवाता है । अंत में कोई बच्चा घर के भीतर रह गया, आग बहुत अधिक बढ़ गई तो वह कहता है अरे उस बच्चे को निकालो―10 हजार रुपये इनाम देंगे । अब उसे धन भी प्रिय न रहा, अपनी जान प्यारी हो गयी । कदाचित् हो जाय वैराग्य, साधु हो जायतो अब वह अंतस्तत्व के ध्यान में इतना मस्त है कि अनेक उपसर्ग भी आ रहे है, जान भी जा रही है, और बल इतना है कि वह उन उपद्रवियों को भगा सकता है, लेकिन इन विकल्पों को भी वह नहीं चाहता है । अब क्या प्यारा रहा उसे, सो तो बतावो? उसे प्यारा रहा अब अपना ज्ञान । तो जो सबसे अंत में प्यारा रहा वही प्यारा कहलायेगा । तो अपने लिए प्यारा है अपने आत्मा का ज्ञान, जिसके होने पर फिर जगत में कोई-कोई चीज प्रिय नहीं लगती ।वह पूर्ण ज्ञान प्रभु के प्रकट हुआ है इसलिए प्रभु का ध्यान किया जाता है ।