वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2197
From जैनकोष
चरस्थिरार्थसंपूर्णे मृगमाणं जगत्रये ।
उपमानोपमेयत्वं मन्ये स्वस्यैव स स्वयम् ।।2197।।
प्रभु की निरुपमता―भगवान का ज्ञान किसकी तरह है, वह प्रभु किसके समान आनंदमय हैं, उन प्रभु की उपमा के लिए यहाँ कुछ है क्या? ढूंढ लो । चर और स्थिर पदार्थों से भरे हुए इस लोक में खूब ढुंढ़ाई कर लो, पर कोई उनकी उपमा के लायक पदार्थ न मिलेगा । अजी भगवान का ज्ञान सूर्य के समान तो होगा? अरे सूर्य तो अस्त भी हो जाता, पर प्रभु का ज्ञानसाम्राज्य कभी नष्ट नहीं होता । सूर्य को तो केतु आकर ग्रस लेता है, पर भगवान को कोई नहीं ग्रसता । सूर्य के नीचे बादल आ जाने पर उसका प्रकाश रुक जाता है, पर प्रभु के ज्ञान में आड़े कुछ नहीं आ सकते । अच्छा―तो प्रभु का ज्ञान चंद्रमा की तरह तो होगा? अरे चंद्रमा तो कभी उदय में आता है कभी नहीं आता, प्रभु तो नित्य उदित प्रतिभासमान हैं । चंद्रबिंब में तो कोई कलंक लगा हुआ है―जैसे कोई बच्चे लोग कहते हैं कि चंद्रमा में कोई बुढ़िया बैठी हुई सूत कात रही है, कोई लोग कहते हैं कि हिरण उछल रहा है, कोई लोग कहते हैं कि चंद्रमा में बरगद का पेड़ है । यों चंद्रमा में तो अनेक कलंक लगे हैं पर प्रभु के ज्ञान में कहाँ कलंक है? तो यहाँ प्रभु के ज्ञान की किससे उपमा दें? उपमा देने लायक यहाँ कोई नहीं है ।यह कह सकते हैं कि भगवान की उपमा लायक तो भगवान ही हैं । अनेक विधियों से तत्वज्ञान करके अपने आत्मा की साधना कर के जो महान आत्मा सिद्ध प्रभु बने हैं उनके वैभव की कुछ चर्चा चल रही है ।