वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2201
From जैनकोष
नासत्पूर्वाश्च पूर्वा नो निर्विशेषविकारजा: ।
स्वाभाविक विशेषा ह्यभूतपूर्वाश्च तद्गुणा: ।।2201।।
प्रभुगुणों की भूतपूर्वता और अभूतपूर्वता―सिद्ध भगवान में जो गुण प्रकट हुए हैं वे गुण ऐसे नहीं हैं कि पहिले न थे और ऐसा भी नहीं है जो पहिले थे । इसका तात्पर्य यह हैकि आत्मा में यदि ज्ञान आनंद आदिक गुण न हों तो किसी भी प्रकार वे प्रकट नहीं हो सकते । धूल में तेल नहीं है तो धूल को कितने ही बार पेला जाय तो भी उससे तेल नहीं निकल सकता, ऐसे ही जिसमें जो शक्ति नहीं है कितने ही उपाय किए जायें, उससे वह वस्तु प्रकट नहीं हो सकती । सिद्ध भगवान के आत्मा में एक विकास है तो आत्मा में वह स्वयं है गुण तब सिद्ध भगवान के प्रकट हुआ हैं । कारीगर लोग मूर्ति बनाते हैं पत्थर में से तो कारीगर क्या वह चीज बना लेता है जो पत्थर में न थी? नहीं बना सकता । जो निकला है पत्थर में से, जो प्रतिमा बनी है, जो मूर्तिरूप हुआ, वह अंग वह अवयव वह स्कंध पत्थर में था । छेनी हथौड़े से क्या किया कारीगर ने? कोई चीज नई लगायी क्या? जो उसके आवरक पत्थर के टुकड़े, थे उन्हें दूर किया, चीज वही प्रकट हुई जो पत्थर में पहिले से थी । इसी प्रकार जब आत्मा परमात्मा होता है तो परमात्मा में नई चीज नहीं आती है । जो आत्मा में था और वह विषयकषाय कर्म आदिक आवरणों से ढका हुआ था, एक समाधि के उपाय से, ध्यान अग्नि से उन आवरणों को जलाया, हटाया तो जो था, सो ही सिद्ध रूप में प्रकट हुआ । इस कारण कहते है कि सिद्ध भगवंत में जो गुण प्रकट हुए हें वे ऐसे नहीं हैं कि पहिले न थे अब हुए हैं ।दूसरी बात सुनो―सिद्ध भगवान में जो गुण प्रकट हुए हैं वे पहिले नहीं थे, केवलज्ञान केवलदर्शन आदिक गुण सिद्ध भगवान में जो हैं क्या वे सिद्ध होने से, अरहंत होने से पहिले थे? तो एक दृष्टि से यह बात जंचती है कि भगवान में जो गुण प्रकट हुए हैं वे पहिले न थे अब हुए और एक दृष्टि से यह बात जंच रही है कि सिद्ध भगवंत में जो गुण हुए हैं वे पहिले न थे और एकदम नये ही कहीं से आ गए, ऐसी बात नहीं है । इसका कारण यह है कि जो बिल्कुल ही कुछ नहीं है उसकी उत्पत्ति नहीं है, उसका आविर्भाव नहीं, प्रकाश नहीं । वह गुण स्वाभाविक विशेष विकार भूत नहीं है, इस कारण से भगवान के जो गुण हैं वे अभूतपूर्व भी हैं और पहिले थे वे ही उत्पन्न हुए हैं । ये दोनों बातें यथार्थ जान लेना चाहिए ।