वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 234
From जैनकोष
ततो निर्विषयं चेतो यमप्रशमवासितम्।
यहि स्यात् पुण्ययोगेन स पुनस्तत्त्वनिश्चय:।।234।।
विषयों से विरक्तता की दुर्लभता―मनुष्य हुए, आयु मिली, बुद्धि अच्छी हुई, मंद कषाय भी मिल गया, पर विषयों से विरक्ति का परिणाम होना यह और भी कठिन है। यद्यपि थोड़ा विषयों की उपेक्षा किए बिना कषायें मंद नहीं होती लेकिन वैराग्य होना और बात है। वैराग्य होता है, सम्यग्ज्ञान से। मंद कषायें तो मिथ्यादृष्टि के भी हो सकती हैं। कोई दिगंबर भेष धारण करके भी और इतनी ऊँची साधना करके भी कि शत्रु उसे कोल्हू में डालकर पेले तो भी वह शत्रु पर क्रोध न करे, इतनी भी मंद कषायें हो जायें तो भी मिथ्यात्व संभव है, रह सकता है। तब समझिये मिथ्यात्व कितना गहन अंधकार है? यहाँ एक तर्कणा उठ सकती है कि इतनी ऊँची तो साधना है, सब परिग्रह त्याग दिया और सभी प्रकार की ऋतुवों की बाधाएँ सहते हैं, इससे बढ़कर और क्या कि शत्रु भी उसे कोल्हू में पेल रहा है, फिर भी शत्रु के प्रति शत्रुता भाव नहीं है इससे बढ़कर और क्या चाहिए?
पर्याय में आत्मीयता ही मिथ्यात्व का अस्तित्व―फिर मिथ्यात्व कैसे रह गया? वह कौनसी धारणा है जिसमें मिथ्यात्व बसा है? तो मिथ्यात्व के जो लक्षण हैं उन लक्षणों की पद्धति से ही निर्णय करें तो यह बात आती है कि पर्याय में उसने आत्मीयता मान ली है, मैं साधु हूँ, मैंने व्रत लिया है, मुझे निर्वाण जाना है, साधु के किसी शत्रु के प्रति विरोध न रखना चाहिए। अगर शत्रु पर क्रोध करे तो उसका निर्वाण न होगा। ऐसा उसको अपने साधुत्व की साधना में आत्मबुद्धि लग गयी है। अब सोचिये―एकदम तो यों लोगों के आता है कि वह अच्छा ही तो सोच रहा है कि मैं साधु हूँ, मुझे समता रखना चाहिए, विरोध न करना चाहिए, यह ठीक ही तो सोच रहा है, पर नहीं, अब भी उसके अंतरंग में ऐसी श्रद्धा है तो ठीक नहीं है। श्रद्धा यह होनी चाहिये थी कि मैं तो एक चैतन्यस्वरूप आत्मपदार्थ हूँ। अरे कोर्इ गृहस्थी में रहता है तो मानता है कि मैं गृहस्थ हूँ इसी प्रकार किसी ने परिग्रह त्यागकर अपने को मान लिया कि मैं साधु हूँ, तो गृहस्थ भी एक स्थिति है और साधु भी एक पर्याय की स्थिति है। गृहस्थ ने गृहस्थी की पर्याय से आत्मबुद्धि कर ली तो वह अज्ञानी है तो साधु ने भी साधु की परिणति में आत्मबुद्धि कर ली तो वह भी अज्ञानी है, इतना अज्ञान का सूक्ष्म विष रह जाता है।
तत्त्व निर्णय की दुर्लभता की प्राप्ति से सर्वस्व की सुलभता―तो मंद कषाय होने पर भी निर्मल बुद्धि न रह पाये तो उसका भी आगे उद्धार नहीं है। विषयों से विरक्त होने का परिणाम होना, यम और शांति से सुवासित चित्त का होना यह बहुत ही कठिन बात है। यह ज्ञान होने पर संभव है। इससे पहिली बातें तो अज्ञान अवस्था में भी प्राप्त हो सकती हैं। पर एक शुद्ध निर्मल परिणाम, परतत्त्वों से वैराग्य का भाव यह बहुत ही कठिन चीज हैं और कुछ-कुछ यह भी होने लगे तो एकदम स्पष्ट तत्त्व का निर्णय होना यह अत्यंत दुर्लभ है। तत्त्व निर्णय होने पर पदार्थों में प्रीति नहीं रहती और जब पर की प्रीति नहीं रही तो उसे सब समृद्धि मिल गयी। इस जीव को तो चाहिए शांति ही ना, परपदार्थों का समागम छोड़कर प्रथम तो यह जीव करेगा क्या? बहुत सी सामग्री जुड़ गयी उनमें जीव क्या करे, केवल एक अपनी कल्पना और विकल्प ही करना है, किसी पर का तो कुछ करता नहीं और जुड़ गया तो आखिर वह समूचा का समूचा छोड़ना ही पड़ेगा। कुछ दिनों का यह मेला है, जो कुछ भी समागम मिले हैं सबका वियोग अवश्य होगा तो लाभ क्या मिला? शांति तो नहीं मिल सकी, बल्कि अशांति का साधन रहा।
तत्त्व विधान का लाभ―तब निर्णय हो जाये, सर्व पदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र हैं ऐसा ज्ञान में आने लगे तो अब इसे संयोग वियोग की आकुलता नहीं रही। जैसे व्यवहार में लोग कहते हैं कि अपनी संतान को बहुत योग्य बना दे, खूब पढ़ लिख जाय, ऊँचा पोस्ट पाने लगे तो उस ही को एक बड़ा वैभव मानते हैं। जो एक लखपति की कदर नहीं होती उससे अधिक कदर उस पढ़े लिखे की है जिसने गरीबी में पढ़ा है और किसी तरह अर्थोपार्जन करने वाली विद्या में पारंगत हो गया है तो उसे लोग उस ही दृष्टि से देखते हैं जैसे यह लखपति ही है। तो इस जड़ वैभव का संचय करने की अपेक्षा बच्चे को कुशल बना देना यह बहुत ऊँची बात है। उससे फिर वह जीवन में कष्ट नहीं पा सकता, वैभव का तो कुछ विश्वास भी नहीं, रह सके या ना रह सके, पर किसी न किसी ढंग से योग्यता पायी है तो वह अपना जीवन पार कर लेगा। तो जैसे लोकव्यवहार में इस जड़ वैभव से भी अधिक महत्त्व की बात विद्याभ्यास को कहते हैं ऐसे ही समझिये कि सुख शांति के क्षेत्र में बड़ी समृद्धियाँ मिलने से भी अधिक महत्व की चीज तत्त्वनिर्णय है, जो भी दिखे इसी का ही स्पष्ट निर्णय है जिसमें उसे क्षोभ न हो। जीव देखो, पौद्गलिक पदार्थ देखो, कुछ भी चीज सामने हो उसे निरखकर उसका स्वतंत्र स्वरूप ज्ञान में आ गया। फिर क्षोभ नहीं होता। तो अत्यंत दुर्लभ है तत्त्वनिर्णय। तत्त्वनिश्चय के बाद कोई कमी नहीं रहती, नियम से उसका उद्धार होगा।