वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 244
From जैनकोष
एता द्वादश भावना: खलु सखे संख्योऽपवर्गश्रिय।
स्तस्या: संगमलालसैर्घटयितुं मैत्री प्रयुक्ता बुधै:।
एतासु प्रगुणीकृतासु नियतं मुक्त्यंगना जायते।
सानंदा प्रणयप्रसन्नहृदया योगीश्वराणां मुदे।।244।।
बारह भावनाओं में मुक्ति की संख्यता―ये बारह भावनाएँ मुक्तिरूपी लक्ष्मी की सखी है। जैसे सखियों का काम मैलमिलाप कराना होता है ऐसे ही बारह भावनाओं का काम मुक्तिरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति कराना है। इन बारह भावनाओं का बहुत विशाल स्वरूप है और प्रभाव है। छोटे से भी छोटे धर्माचरण की इच्छा रखने वाले पुरुष इन बारह भावनाओं से धर्म का प्रारंभ करते हैं और बड़े से बड़े साधु भी बारह भावनाओं में अपने धर्माचरण की पूर्णता करते हैं। साधारणजन भी इन बारह भावनाओं को भाते हैं और बड़े-बड़े साधु पुरुष भी इन भावनाओं को भाते हैं, पर सबकी पदवी में सबकी दृष्टि में इन बारह भावनाओं का स्वरूप, फैलाव प्रभाव जुदे-जुदे और उत्कृष्ट होते जाते हैं। तो ये बारह भावनाएँ मुक्तिरूपी लक्ष्मी की सखी हैं। तथा यह मित्रता करने के लिए एक प्रयोगरूप है। जिसे किसी की प्रसन्नता चाहिए हो, और किसी की मित्रता चाहिए हों, कृपा चाहिए हो तो उसके लिए कुछ व्यवहार बनाना पड़ता है ना, कोई प्रयोगरूप उपाय करना पड़ता है। तो मुक्तिरूपी लक्ष्मी का संगम करने के लिए ये बारह भावनाएँ बहुत उत्तम है यह मित्रता का प्रयोग है यों ही कोरे लट्ठ से बैठ जायें यों ही ऐंठे रहे, वह तो किसी से मित्रता करने का ढंग नहीं है। ढंग होता है हित मित प्रिय वचन बोलना। उसके चित्त को सुहाये ऐसी बात बोलना, यह मित्रता का उपाय होता है लोक में।
मुक्ति में लक्ष्मीत्व का अलंकार―यहाँ मुक्तिरूपी लक्ष्मी की भावनाओं का भाना प्रयोग बताया है और साधु पुरुषों का इन बारह भावनाओं में खासा प्रयोग होता है और गृहस्थजनों को भी देखो―सबसे शुरू में बच्चे को जब धर्म पढ़ाते हैं तो तीन चार पाठ के बाद ही यह बारह भावनाएँ रख देते हैं। तो धर्म का प्रारंभ भी इन बारह भावनाओं से किया जाता है और इसकी पूर्णता भी इन बारह भावनाओं में कर ली जाती है। तो इसका भाना मुक्ति संगम के लिए उसकी मित्रता के लिए प्रयोगरूप है। जो पुरुष इन भावनाओं का अभ्यास करता है उस पुरुष को यह मुक्तिरूपी वनिता आनंद सहित प्रसन्न होकर आनंद को देने वाली होती है। संसारीजनों को समझाने के लिए उनकी ही भाषा में मुक्ति श्री बोला जाता है। वैसे तो कुछ वर्णन करते समय मुक्ति को स्त्री का रूपक बनाकर और योगीश्वर को उसके दूल्हा बनाना, यह कोर्इ शोभनीय बात तो नहीं है लेकिन मोही लोग जो स्त्री को महत्व देने के आदी हैं, इसे सांसारिक सुख समझते हैं उनके लिए यों भी कह दिया जाता है।
मुक्ति और मुक्तिपथ में भावनाओं का सहयोग―मुक्ति तो आत्मा का एक विशुद्ध परिणाम है और जहाँ केवल ज्ञानस्वरूप का ही अनुभव रहता है, जो कि अनिवार्य भी है इसके फल में समस्त विश्व का ज्ञान हो जाता है, अर्थात् सर्वज्ञ हो जाता है, लेकिन मोक्ष नाम सबको जानने का नहीं है, केवल निज सहज स्वरूप रह जाने का नाम मोक्ष है। तो जहाँ केवल रह गया, सहज स्वरूप में बस गया वहाँ उसे अनंत आनंद उत्पन्न होता है इस ग्रंथ में मुख्यतया ध्यान का वर्णन चलेगा। ध्यान के लिए इतनी तैयारी बनाना इसके लिए बारह भावनाओं का वर्णन किया है। बहुत से लोग यों कहते हैं कि हमारा चित्त धर्म कार्य में नहीं ठहरता और यत्र तत्र भ्रमण करता रहता है। तो क्यों भ्रमण करता है और चित्त यहाँ वहाँ न डोले इसका उपाय क्या है? तो भ्रमण तो यों हुआ करता है कि उनके चित्त में राग और मोह बसा है। राग मोह का विषय एक होता नहीं, वह विषय बदलता रहता है। विषय भी विघटित होते रहते हैं। जब तीव्र पाप का उदय चल रहा हो तो इन बारह भावनाओं के भाने से सारी समस्या हल हो जाती हैं। चित्त आत्मा की ओर लग जाता है। तो इन ध्यान वाले ग्रंथों में ध्यान की बात पात्रता बनाने के लिए बारह भावनाओं का वर्णन किया है।
बारह भावनाओं से आत्मा की मुक्तिपात्रता―ये बारह भावनाएँ संसार, शरीर और भोग से वैराग्य उत्पन्न कराने वाली हैं। संसार के मायने अपने भीतर का परिणाम। जिस कल्पना में बसे रहते हैं, और निज कल्पनाओं में बिगड़े रहते हैं अपराध किया और अपराध को अपराध न माना, यही है संसार का राग। और अपराध बना और उसे अपराध माना ऐसा तो करना चाहिए, तो वह है संसार का वैराग्य। तो संसार का अर्थ विभाव परिणाम है। उन विभावपरिणामों से वैराग्य होना, इस वैराग्य उपजाने का नाम है वैराग्य भावना। तो बारह भावनाओं के चिंतवन से शरीर से भी विरक्ति होती है और भोगों से भी विरक्ति होती है। भोगों के मायने ये बाहरी मिले हुए सब भौतिक पदार्थ―पुद्गल, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। ये इंद्रियों के भोग हैं, तो इन भोगों से भी विरक्ति उत्पन्न होती है। तो संसार देह भोगों से वैराग्य कराने के लिए इस जीव को बारह भावनाओं का उपदेश किया गया है। इन बारह भावनाओं से बहुत संक्षेप में हम यह शिक्षा लें कि इस जीव ने अब तक पर्याय बुद्धि की, द्रव्यदृष्टि नहीं की, अपने नित्यस्वरूप को नहीं निरखा। इस जीव ने अब तक पर का शरण तो चाहा पर निज के शरण की सुध नहीं ली। इस जीव ने शरीर के दु:खों को सुख मानकर उनमें ही मस्ती की। कभी कोई अपने को अकेला न सोचे, अपने से पर को न्यारा न सोचे, और उन्हीं खोटी वासनाओं से कर्म बंध होता रहा। अब इन सबके मिलने का उपास संवर है और निर्जरा है। निर्जरा के प्रताप से ध्यान की बुद्धि होती है। इतना सब मिल गया, अब कहीं लोकेषणा में चित्त न फँसे, स्वतंत्र विचारें और इतने पर भी हम अपने स्वरूप से विचलित न हो जायें, इसके लिए सावधान बनाये रखने को बोधिदुर्लभ भावना भायी। और धर्मभावना तो सबका प्रयोजन ही है। उस धर्म में मग्न होने के लिए योगियों ने इन बारह भावनाओं का चिंतवन किया। हम आपका भी कर्तव्य है कि तत्त्व की दृष्टि बनायें और इन बारह भावनाओं का चिंतवन करके अपने आपको मुक्ति का पात्र बनायें।
।।ज्ञानार्णव प्रवचन चतुर्थ भाग समाप्त।।