वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 29
From जैनकोष
क्षणं कर्णामृतं सूते कार्यशून्यं सतामपि।
कुशास्त्रं तनुते पश्चादविद्यागरविक्रियाम्।।29।।
कुशास्त्र की बाह्यरम्यता― ये खोटे शास्त्र सुनने में तो क्षणभर को कर्ण में अमृत जैसे वर्ष कर देते हैं क्योंकि वे पहिले तो अच्छे लगेंगे। जैसे कोर्इ अहितकर वस्तु खाये तो पहिले तो वह अच्छी लगेगी किंतु बाद में वह अहितकर प्रतीत होगी। यों ही ये कुशास्त्र सुनने में भले लगते हैं किंतु इन कुवचनों का फल बड़ा भयंकर है। एक सिद्धांत है चारवाक्। उसमें सारी बातें सुनने में तो बड़ी भली लगती हैं पर उन बातों का परिणाम बड़ा भयंकर निकलता है। ये कुवचन कानों से सुनने में तो बड़े प्रिय लगते हैं, कर्ण में अमृत जैसी वर्षा कर देते हैं पर सज्जन पुरुषों के लिये वे वचन कार्यशून्य हैं। बहुत से लोग क्या करते हैं कि कोई उपन्यास उठा लिया और उसे आदि से अंत तक बड़े चाव से पढ़तेहैं। अरे उन बातों के पढ़ लेने से कौनसा लाभ लूट लिया जाता है? ये सब कुशास्त्र ही तो हैं। जिससे न आजीविका का प्रयोजन सधे, न आत्मशांति की कोई बात मिले, ऐसे कुवचनों के, कुशास्त्रों के सुनने पढ़ने से आत्मा का कुछ भी लाभ न होगा। ये शब्द पहिले तो अमृत जैसी वृष्टि करेंगे पर बाद में विष जैसा फल देते हैं। यहाँ यह बात बतायी जा रही है कि इस जीव को कैसी वासना बनी हुई है कि इसे खोटी बातें तो चित्त में घर कर जाती हैं पर हित की बातें चित्त में घर नहीं कर पातीं।