वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 356
From जैनकोष
क्रोधादिभीमयोगींद्रै रागादिरजनीचरै: ।अजय्यैरपि विध्वस्तं न येषां यमजीवितम् ॥353॥
विकारों से अविध्वस्त संयम वाले योगियों के ध्यातृत्व की प्रशंसा –जिन मुनिराजों का संयम रूपी जीवन क्रोधादिक कषाय रूपी भयंकर सर्पों से और रागादिकरूपी पिशाचों से नष्ट नहीं होता ऐसे योगीश्वर प्रशंसनीय ध्याता होते हैं ।धर्मपालन के लिए बहुत-बहुत सामाग्री में यदि व्यग्र नहीं होना चाहते और सीधा एक रूप में ही एक आश्रय लेना चाहते, कि हम क्या करने लगें कि हमारे में धर्मभाव प्रकट हो, और जो कुछ भी श्रेय है, कल्याण है, सब कुछ मंगल हमें प्राप्त हो, तो एकमात्र यह दृष्टि रख लीजिए कि मेरा जो सहजस्वरूप है, पर की अपेक्षा किए बिना अपने आप अपने सत्व के कारण मेरा जो सहजस्वरूप है तन्मात्र मैं अपने आपको निहारता रहूँ, बस एक इस काम को पकड़ लीजिए । फिर परिस्थितिवश इस एक शुद्ध दृष्टि के जगने पर, मन, वचन, काय की जो प्रवृत्तियाँ उचित होनी चाहियें वे सब अनायास थोड़े से ही साधनों में अनायास होती रहेंगी । पर लक्ष्य में हम कौन सी एक बात पकड़ लें कि जिसके सहारे हमारा उद्धार हो सके ? यत्न करें अपने आपके सहजस्वरूप के दर्शन का, और इस पावन कर्तव्य के लिए हम वस्तुस्वातंत्र्य के निरखने के प्रेमी बनें ।आश्रेय तत्त्व –विज्ञान में सब बातें आती हैं निर्णय रखकर समझ लीजिए, पर हम किस दृष्टि की शरण जायें, किस भावना की शरण जायें, उसकी बात कही जा रही है कि शरण जाने योग्य तो केवल सहजस्वरूप है । सहजस्वरूप का आलंबन ही हमारा शरण है । चूँकि यह निर्विकल्प एकत्वस्वरूप है इस कारण निर्विकल्प एकत्वस्वरूप निजभाव के दर्शन और उपयोग बनाये रहने के लिए हमें अपनी दृष्टि अधिकाधिक समयों में इस सहजस्वरूप की ओर लगानी चाहिए । बहुत-बहुत विभिन्न पदार्थों का आश्रय करने में बुद्धि डोलती ही रहती है और अपने आपके स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पाती । नानाप्रकार के धार्मिक ज्ञानों का प्रयोजन भी एक इस निर्विकल्प आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठित होने का है, तो हम बहुत समय बहुत उपयोग के साथ इस अध्यात्मतत्त्व के दर्शन का यत्न रखें तो हमें कुछ इस संबंध में दृष्टि जग सकती है ।अलब्ध परमलभ्य तत्त्व की उपलब्धि के लिये पुरुषार्थ का अनुरोध –भैया ! व्यवहार और विविध अनेक प्रसंगों में तो इस जीव का अनंतकाल व्यतीत हुआ किंतु इसे अपने आपके सहजस्वरूप की दृष्टि प्राप्त नहीं हुई । जो बात अब तक प्राप्त नहीं हुई उस हितरूप तत्त्व की प्राप्ति के लिए हमें कितना अधिक उपयोग इस निर्विेकल्प की ओर लगाना चाहिए ? उत्तर तो साधारणरूप से यह आयगा कि सारा समय लगायें, पर थोड़ा भी लगता कहाँ, यह कोशिश करें कि हम इस द्रव्यदृष्टि का, अपने आपके अविनाशी निर्विकल्प ज्ञानमात्रस्वरूप का अधिकाधिक उपयोग किया करें । इसके लिए हम किसी भी वस्तु को जानें, केवल उस एक कोजानने का, निहारने का पुरुषार्थ रखा करें । यह भावना, सहजस्वरूप का अवलंबन किया जाने से ये क्रोधादिक कषायें शीघ्र शांत हो जाती हैं । तो जिन साधुजनों के ये कषायें नहीं हैं अथवा इन क्रोधादिक कषायों से जिनका संयम नष्ट नहीं हुआ, अथवा इन रागादिक निशाचरों से जिनका संयमन नष्ट नहीं हो सकता वे ध्याता योगीश्वर प्रशंसनीय हैं ।